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Monday, November 24, 2014

विधवा और कुंवारियां मनचाहा पति कैसे पाएँ?:Practical Training

नन्हे भाई एक सरकारी आफ़िस में बाबू में हैं। आफ़िस में भी कई आफ़िस हैं। हरेक आफ़िस में बहुत से बाबू, मुंशी और चपरासी हैं। एक आफ़िस में धारा भी चपरासी है। उसे अपने पति की मौत के बाद उसके आश्रितों में नौकरी मिली है। लगभग पिछले 4-5 सालों से वह सरकारी कागज़ इधर से उधर पहुंचा रही है। उसकी उम्र भी ज़्यादा नहीं है। वह ख़ूबसूरत भी है। कोई ऐसी वजह नहीं है कि वह फिर से शादी न कर सके। जब कभी मेरी नज़र उस बहन पर पड़ती, मैं मालिक से उसकी शादी और अच्छे भविष्य की दुआ ज़रूर करता।
एक रोज़ मैं नन्हे भाई से मिलने के लिए उनके आफ़िस गया तो सामने से धारा निकल कर गई। मैंने नन्हे भाई से कहा कि आप इसकी शादी के लिए दुआ किया करो।
नन्हे भाई बोले कि धारा दोबारा शादी तो करना चाहती है लेकिन उसे डर है कि उसे मिलने वाली पेन्शन बन्द हो जाएगी और उसकी नौकरी भी चली जाएगी।
मैंने कहा कि क्या ऐसा होगा?
उन्होंने कहा कि सिर्फ़ पति की पेन्शन बन्द होगी लेकिन उसकी नौकरी पर कोई आंच नहीं आएगी।
मालिक के करम से तभी धारा भी कुछ काग़ज़ात रिसीव कराने के लिए नन्हे भाई के आफ़िस में आ गई। उनकी असिस्टेंट नोमू उससे बात करने लगी। नन्हे भाई ने धारा को मेरी बात बताई कि हमारे भाई आपकी शादी के लिए दुआ करते रहते हैं।
मैंने कहा- क्या आप पेन्शन और नौकरी छिन जाने के डर से शादी नहीं कर रही हैं तो आप जान लीजिए कि आपकी नौकरी बरक़रार रहेगी सिर्फ़ आपको पेन्शन नहीं मिलेगी जो कि आपकी ख़ुशियों के सामने कोई वैल्यू नहीं रखती। आप शादी करने का इरादा कर लीजिए।
धारा ने कहा कि मैं ख़ुद भी शादी करना चाहती हूं लेकिन मेरा काम अटक जाता है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने मुझ पर कोई जादू वग़ैरह करवा दिया हो।
मैंने कहा कि मेरा ताल्लुक़ देवबन्द से है। मैं इस करने कराने को गहराई से जानता हूं। आप पर असर तो है लेकिन यह असर आपका अपना किया हुआ है।
वह बोली- कैसे?
मैंने कहा- आप चाहती हैं कि आपकी दोबारा शादी हो?
धारा बोली- हाँ
मैंने कहा- फिर आपको यह डर भी सताता है कि लोग क्या कहेंगे?
धारा बोली- हाँ
मैंने कहा- यही डर आपका काम अटका रहा है। आप इस डर को अपने दिल से निकाल दीजिए। आपका काम हो जाएगा। समाज के रिवायती लोग तो विधवाओं को तिल तिल करके मरते देखना चाहते हैं। उनकी ख़ुशी के लिए अपनी ख़ुशियों का गला घोंटना अक्लमन्दी नहीं है। अब औरतों को विधवा होने के बाद सती और बर्बाद की कोई ज़रूरत नहीं है। आपकी शादी होगी और आपको अच्छा पति मिलेगा।
धारा ने पूछा कि मैं क्या करूँ?
मैंने कहा- आप रात को सोने से पहले ‘सबका मालिक एक’ और ‘अल्लाह मालिक’ यह कहिए। इसके बाद जैसा पति आपको चाहिए, उसका स्वरूप अपने मन में बनाईये। पति की उम्र, आमदनी, रंग, क़द, विचार और यह कि वह शहरी हो या देहाती, यह सब बिल्कुल साफ़ साफ़ सोच लीजिए। इसके बाद आप उसे अपने मन की आंखों से अपने घर में मौजूद देखिए। यह विचार लेकर आप सो जाईये और फिर सुबह को उठते ही यही विचार कीजए। दिन में भी आप इस विचार को अपने में ताज़ा करती रहिए। आप यक़ीन कीजिए कि आपका सपना पूरा होगा। एक हफ़ते में आपका काम हो जाएगा।
19 नवम्बर 2014 को नन्हे भाई ने ख़बर दी कि धारा ने 18 नवम्बर को एक लड़के के साथ कोर्ट मैरिज कर ली है। दोनों पक्षों की तरफ़ से कोई भी शामिल नहीं हुआ। मैं ख़ुश हुआ कि दोनों पक्षों की तरफ़ से कोई शामिल नहीं हुआ न सही लेकिन धारा की नैया पार लग गई।
20 नवम्बर को धारा माँग में सिन्दूर लगाकर आई। उसने मुझे, नन्हे भाई को और नोमू को बरफ़ी खिलाई। उसका चेहरा खिला हुआ था। उसने बताया कि भाई साहब, जिस दिन दुआ की उससे अगले दिन से ही रिश्ता लगना शुरू हो गया था। मेरे पति बहुत सुन्दर हैं। वह दिल्ली में रहते हैं और एक अच्छी कम्पनी में जॉब करते हैं। उसने अपने मोबाईल में अपने पति का फ़ोटो दिखाया। वाक़ई वह एक अच्छी शक्ल का नौजवान है।
धारा बोली- आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
मैंने कहा- अब तो हमारे काम की शुरूआत हुई है। अब हम तुम्हें बहुत से बच्चों का वरदान देते हैं। कम बच्चों की बात कभी मत सोचना। बच्चे जितने ज़्यादा हों, उतना ही अच्छा है। सोचना कि पूरा शहर तुम्हारे बच्चों से भर गया है। तुम्हारे दौलत बहुत आएगी।
धारा मुस्कुरा कर सुनती रही।
मैंने कहा- अपने पति को बचा कर रखना। जब कभी उसके पास तुम्हारे रिश्तेदार बैठें तो वहां मौजूद रहना। कुछ ग़लत क़िस्म के रिश्तेदार ग़लत बातें कह जाते हैं और रिश्ता बिगाड़ देते हैं।
धारा ने हामी भरी और अपने आफ़िस वालों को मिठाई खिलाने चली गई। मालिक हरेक विधवा और तलाक़शुद औरत को धारा से ज़्यादा सुख दे और उनके दिल से दुनिका का डर निकाल दे, जिसने उनका जीवन दुखों से भर दिया है।
अक्सर डर बेकार होते हैं। यह सपने साकार होने की दुनिया है। आप सपने देखिए, उनके पूरा होने का यक़ीन कीजिए। अपने मन, वचन और कर्म से अपने सपनों को सपोर्ट कीजिए। समय आने पर वह सहज ही पूरा हो जाएंगे।
यह ईश्वर की प्राकृतिक व्यवस्था है।
कुंवारी लड़कियां भी इसी विधि से अच्छा पति पा सकती हैं। उन्हें अपने मन से यह डर निकाल देना चाहिए कि उनके पास देने के लिए बहुत सा दहेज नहीं है, इसलिए उन्हें अच्छा पति नहीं मिलेगा।
दिल से हरेक डर निकाल देने के बाद अच्छे पति के बारे में सोचिए कि आपकी नज़र में एक अच्छे पति में क्या गुण होने चाहिएं और फिर उसके साथ अपना विवाह होते हुए देखिए, बस। हो गया काम।
एक आसान काम को बेवजह के डर ने इतना मुश्किल बना दिया है कि बहुत सी लड़कियां उस आदमी से शादी कर बैठती हैं, जिसकी सूरत और सीरत को वे पसन्द नहीं करतीं।
औरत को अपनी हक़ीक़त और अपनी शक्ति पहचाननी होगी। उसे सारी ख़ुशियां मयस्सर होती चली जाएंगी।

Friday, July 4, 2014

आखिर तुम्हारे पास... क्या है मेरे नाम का?

देह मेरी ,
हल्दी तुम्हारे नाम की ।
हथेली मेरी ,
मेहंदी तुम्हारे नाम की ।
सिर मेरा ,
चुनरी तुम्हारे नाम की ।
मांग मेरी ,
सिन्दूर तुम्हारे नाम का ।
माथा मेरा ,
बिंदिया तुम्हारे नाम की ।
नाक मेरी ,
नथनी तुम्हारे नाम की ।
गला मेरा ,
मंगलसूत्र तुम्हारे नाम का ।
कलाई मेरी ,
चूड़ियाँ तुम्हारे नाम की ।
पाँव मेरे ,
महावर तुम्हारे नाम की ।
उंगलियाँ मेरी ,
बिछुए तुम्हारे नाम के ।
बड़ों की चरण-वंदना
मै करूँ ,
और 'सदा-सुहागन' का आशीष
तुम्हारे नाम का ।
और तो और -
करवाचौथ/बड़मावस के व्रत भी
तुम्हारे नाम के ।
यहाँ तक कि
कोख मेरी/ खून मेरा/ दूध मेरा,
और बच्चा ?
बच्चा तुम्हारे नाम का ।
घर के दरवाज़े पर लगी
'नेम-प्लेट' तुम्हारे नाम की ।
और तो और -
मेरे अपने नाम के सम्मुख
लिखा गोत्र भी मेरा नहीं,
तुम्हारे नाम का ।
सब कुछ तो
तुम्हारे नाम का...
नम्रता से पूछती हूँ 
आखिर तुम्हारे पास...
क्या है मेरे नाम का?

Sunday, July 14, 2013

बंद हो विधवाओं पर अत्याचार vidhva

बात बरसों पुरानी है। मैंने वृंदावन में सड़क पर एक विधवा का शव देखा। स्थानीय लोगों ने उस महिला का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि विधवा का शव छूने से अपशकुन होता है। ऐसे अंधविश्वासों की वजह से ही विधवाओं का शोषण होता है।
वह सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लेखिका हैं और महिला आंदोलन की नेता भी। मोहिनी गिरी 40 साल से भारत व दक्षिण एशिया में युद्ध प्रभावित परिवारों के लिए संघर्ष करती रही हैं। पेश है अमेरिका की केन्टकी यूनीवर्सिटी के एक कार्यक्रम में विधवाओं के हालात पर हुए मोहिनी गिरी के भाषण के अंश।
भेदभाव और शोषण
मैं आज यहां आपसे विधवाओं के मुद्दे पर बात करना चाहती हूं। आप पूछेंगे कि भला इस मंच पर विधवाओं का मुद्दा क्यों?
हम सब एक वैश्विक समुदाय का हिस्सा हैं। हमें एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए ताकि समाधान की दिशा में कदम उठाए जा सकें। दुनिया भर में बड़ी संख्या में महिलाएं युद्घ व हिंसा की वजह से अपने पतियों को खो देती हैं। काश! ये लड़ाईयां खत्म हो जाएं। ऐसा हुआ तो यकीनन ये यह दुनिया एक बेहतर जगह बन पाएगी। विधवाओं के साथ हमेशा से भेदभावपूर्ण व्यवहार होता रहा है। वर्ष 2010 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 4.5 करोड़ विधवाएं हैं। इनमें से 4 करोड़ महिलाओं को विधवा पेंशन नहीं मिल पाती। परंपरा के नाम पर इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, परिवार के अंदर उन्हें बोझ समझा जाता है।
पितृसत्तात्मक व्यव्स्था
भारत में विधवाओं के खराब हाल के लिए काफी हद तक पितृसत्तामक व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था के तहत परिवार के अंदर सारे अधिकार पति के पास होते हैं। ऐसे में पति की मौत होते ही महिला से सारे अधिकार छिन जाते हैं और उसका शोषण शुरू हो जाता है। कहने के लिए तो देश में महिलाओं के लिए कई कानून हैं। लेकिन असल में इन कानूनों का पालन नहीं हो पाता है। अक्सर पति की मौत के बाद घर की जमीन भाइयों और बेटों में बंट जाती है और विधवा महिला पूरी तरह असहाय हो जाती है। मुझे भी ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। मेरे पति ने अपनी मौत से पहले अपनी सारी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी, लेकिन मुझे यह अधिकार हासिल करने के लिए कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा। मुझसे कहा गया कि मैं अपने बेटों से इस बारे में एनओसी लेकर आऊं।
दूसरी शादी नहीं
हमारे यहां विधवाओं की दूसरी शादी का चलन ही नहीं है। पति की मौत के बाद पत्नी को बाकी की जिंदगी अकेले ही बितानी होती है। भारतीय परंपरा में माना जाता है कि शादी सात जन्मों का रिश्ता है। ऐसे में विधवा स्त्री दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। पति की मौत के बाद उसे पूरे जीवन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। परंपरा के नाम पर इन्हें सफेद धोती पहननी पड़ती है। विधवाओं के लिए सज-संवरकर रहना गलत माना जाता है। 
वृंदावन का हाल
अब मैं आपसे वृंदावन की बात करूंगी। वृंदावन में सैकड़ों विधवाएं हैं जिन्हें उनके बेटे या परिवार वाले कृष्ण दर्शन के नाम पर छोड़ गए और फिर लौटकर कभी उनका हाल पूछने नहीं आए। आज से 25-30 साल पहले की बात है। तब मैं महिला आयोग की अध्यक्ष थी। मैं वृंदावन की विधवाओं का हाल जानने के लिए पहुंची। मैंने सड़क पर एक विधवा का शव देखा। उस शव को चील-कौवे नोंच रहे थे। ये देखकर मेरा दिल दहल गया। मैंने लोगों से कहा कि वे उसका अंतिम संस्कार करें। उन्होंने कहा कि वे विधवा का शव नहीं छू सकते, यह अपशकुन होगा। ऐसी ही तमाम भ्रांतिया और परंपराएं हैं, जिनके नाम पर विधवाओं का शोषण होता रहा है।
दर्दनाक कुप्रथा
देश में कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहां विधवाओं को अपशकुनी या चुड़ैल मान लिया जाता है। उत्तर व मध्य भारत और नेपाल के कुछ ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सुनने में आई हैं। ऐसे मामलों में स्थानीय पंचायतें भी कुछ नहीं कर पाती है। भारत में आज भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां बाल विवाह और बेमेल विवाह की कुप्रथा बदस्तूर जारी है। मसलन राजस्थान के कुछ इलाकों में बहुत कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती है। कई बार तो कम उम्र की लड़कियों का विवाह उनसे कई गुना ज्यादा उम्र के पुरुषों से कर दिया जाता है। ऐसे में जब ये लड़कियां जवान होती हैं, तब तक उनके पति बूढ़े हो जाते हैं। पति की मौत के बाद इन्हें बाकी जिंदगी विधवा बनकर गुजारनी पड़ती है।
अशिक्षा व गरीबी 
विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा एक बड़ी वजह है। जहां अशिक्षा है, वहां गरीबी होना तय है। गरीबी की वजह से विधवाओं को बुनियादी जरूरतें जैसे भोजन, कपड़े और दवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। अनपढ़ होने की वजह से इन महिलाओं को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने को मजबूर हो जाती हैं। उनके लिए राज्य और केंद्र सरकारों की कई योजनाएं हैं, पर इनका लाभ उन तक नहीं पहुंचता।
बुजुर्गों के अधिकार
देश में बुजुर्गों की सामाजिक सुरक्षा का कोई खास प्रबंध नहीं है। हमारा समाज पहले से ही महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाता है, इसलिए बुढ़ापे में एक विधवा के लिए जीवन और कठिन हो जाता है। विधवाओं के लिए एक छोटी बचत योजना होनी चाहिए, ताकि वे अपने बुढ़ापे के लिए कुछ पैसा जमा कर सकें। हमें विधवाओं से संबंधित व्यवस्थित आंकड़ें एकत्र करने होंगे ताकि उनके लिए व्यापक योजनाएं बनाई जा सकें। विधवाओं के इलाज और स्वास्थ्य की देखरेख की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होनी चाहिए। विधवाओं को भी सम्मान से जीने और मुस्कराने का हक है।   
प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी
Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/aapkitaarif/article1-story-57-65-346865.html
हिन्दुस्तान १ जुलाई २०१३ 

Thursday, May 16, 2013

देवर ..आधे पति परमेश्वर-पल्लवी त्रिवेदी


एक लड़का और एक लड़की की शादी हुई ...दोनों बहुत खुश थे! स्टेज पर फोटो सेशन शुरू हुआ! दूल्हे ने अपने दोस्तों का परिचय साथ खड़ी अपनी साली से करवाया " ये है मेरी साली , आधी घरवाली " दोस्त ठहाका मारकर हंस दिए !
दुल्हन मुस्कुराई और अपनी सहेलियों का परिचय अपनी सहेलियों से करवाया " ये हैं मेरे देवर ..आधे पति परमेश्वर "

ये क्या हुआ ....? अविश्वसनीय ...अकल्पनीय ! भाई समान देवर के कान सुन्न हो गए! पति बेहोश होते होते बचा!

दूल्हे , दूल्हे के दोस्तों , रिश्तेदारों सहित सबके चेहरे से मुस्कान गायब हो गयी! लक्ष्मन रेखा नाम का एक गमला अचानक स्टेज से नीचे टपक कर फूट गया! स्त्री की मर्यादा नाम की हेलोजन लाईट भक्क से फ्यूज़ हो गयी!

थोड़ी देर बाद एक एम्बुलेंस तेज़ी से सड़कों पर भागती जा रही थी! जिसमे दो स्ट्रेचर थे!
एक स्ट्रेचर पर भारतीय संस्कृति कोमा में पड़ी थी ... शायद उसे अटैक पड़ गया था!
दुसरे स्ट्रेचर पर पुरुषवाद घायल अवस्था में पड़ा था ... उसे किसी ने सर पर गहरी चोट मारी थी!

आसमान में अचानक एक तेज़ आवाज़ गूंजी .... भारत की सारी स्त्रियाँ एक साथ ठहाका मारकर हंस पड़ी थीं !
- पल्लवी त्रिवेदी

Thursday, April 11, 2013

रविश कुमार जी ‘बॉब्स अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 2013‘ में चल रही गड़बड़ियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं।


‘‘औरत की हक़ीक़त‘ को वोट देने के बाद भी वहां वोट दर्ज नहीं होता। इसमें आयोजकों की कोई साज़िश तो नहीं है ?‘‘
आज हमें एक ब्लॉगर मित्र ने फ़ोन पर यह कहा तो हमें हैरत हुई कि 
भी बदइंतेज़ामी का शिकार निकला।
हिन्दुस्तानी औरत का नसीब ही ऐसा है कि उसके बारे में आवाज़ उठाओ तो उसे देस में भी दबा दिया जाता है और बिदेस में भी।

ब्लॉग-चयन के लिए कुछ हिन्दी ब्लॉगर्स ने सीधे सीधे एंकर रविश कुमार जी को ज़िम्मेदार ठहरा दिया है। यह एक ग़लत बात है।
‘औरत की हक़ीक़त‘ ब्लॉग की वोटिंग ‘ज़ीरो‘ रहना इस बात का सुबूत है कि इन सारी अनियमितताओं के पीछे कुछ दूसरे छुटभय्ये टेक्नीशियन्स ज़िम्मेदार हैं। रविश कुमार जी इस तरह ग़ैर ज़िम्मेदारी से काम करते तो वह इतनी तरक्क़ी कैसे कर पाते ?
...लेकिन रविश कुमार जी को ऐसे ग़ैर-ज़िम्मेदारों का पता ज़रूर लगाना चाहिए, जिनकी वजह से उनका नाम ख़राब हो रहा है।
रविश कुमार जी पर पूरे मामले को जाने बिना ही इल्ज़ाम लगाना एक दुखद बात है। इधर हिंदी ब्लॉगर्स के नामित होने के बाद उन लोगों को जलन खाए जा रही है जो कि हरेक ईनाम का हक़दार ख़ुद को मानते हैं। उन्होंने बदतमीज़ियों का एक तूफ़ान खड़ा कर दिया है। हमारे ब्लॉग ‘ ब्लॉग की ख़बरें‘ पर ये सब ख़बरें पढ़ी जा रही हैं। हिन्दी को नुक्सान पहुंचाने वाले इसके अपने ही हैं। ‘बॉब्स अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 2013‘ एक बार फिर इन्हें बेनक़ाब कर गया।
बहरहाल इस बहाने ‘औरत की हक़ीक़त‘ ब्लॉग बहुत पढ़ा गया। इसके लिए रविश जी और जर्मन आयोजकों (अंतरराष्ट्रीय ब्रॉ़डकॉस्टर डॉयचे वेले) का शुक्रिया।
हमारे एक अन्य ब्लॉग 'बुनियाद' पर भी रविश कुमार जी का और दूसरे पाठकों का स्वागत है।
इसके अलावा हमारे कुछ अन्य ब्लॉग यह हैं-

My blogs

इनके अलावा भी हमारे कुछ दूसरे ब्लॉग हैं। उनके लिंक फिर कभी शेयर किए जाएंगे।
इस आयोजन में दूसरे उम्दा ब्लॉग के साथ ‘हलाल मीट‘ भी चुना गया। इस ब्लॉग का कन्टेंट कितना भी उम्दा क्यों न हो लेकिन इसका चुनाव ग़लत श्रेणी में किया गया है।

Saturday, March 2, 2013

हिंदी में स्त्रियों का अपना पक्ष ज्यों ही आजाद होता है, हीरामनों का मर्दवाद कह उठता है, ‘उसे क्या आता था ? (व्यंग्य)-Sudheesh Pachauri

हीरामन की चौथी क़सम -Sudheesh Pachauri, हिंदी साहित्यकार
हीरामन ने हताश होकर चौथी कसम खाई कि अब किसी हीरा बाई की कहानी को ठीक नहीं करेंगे। इतनी मेहनत की और हीरा बाई ने थैंक्यू तक न कहा। हमने उसे बनाया, लेकिन उस थैंकलेस ने एक बार हमारा जिक्र नहीं किया। हम न होते, तो वह आज कहां होती? नाम कमा लिया, तो नजरें फेर लीं! कसम खाते हैं कि आगे से कभी किसी हीरा बाई को कथाकार नहीं बनाएंगे!

रेणु की तीसरी कसम  कहानी में तीसरी कसम खाकर हीरामन स्टेशन से बाहर निकले। घर आए। गाड़ी चलाना छोड़ लेखनी चलाने लगे। कथाकार हुए। साहित्य के ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ के अनुकूल सभी देवताओं को पूजा चढ़ाई। संपादक साधे। आचार्यों को प्रसन्न किया। इनाम झटके। चर्चा होने लगी। नाम चलने लगा। इनाम टपकते रहे। अकादमी पर टकटकी लगी।

हीरामन भोले थे। गंवई थे। उपकारी थे। रचनाकार थे। चेलों से ज्यादा चेलियां पसंद थीं। चेली देखते ही कहते कि तुम में प्रतिभा है, लेकिन सही मार्गदर्शन जरूरी है। हमें गुरु मानो। हम बतावेंगे कि किस तरह लिखा जाता है। एक दिन हम तुम्हें लेखिका बना देंगे। साहित्य की बयार स्त्रियों की ओर बहती थी। चेलियां चंट थीं। वे हिसाब लगातीं कि हीरा गुरु साहित्य में जिस तिस से जुड़ा है। दिल्ली वाले बड़े-बड़े नाम उसकी मानते हैं। वह अलेखिकाओं को लेखिका बना सकता है, मैं तो लेखिका हूं।
हर शहर में संभावनावान लेखिकाएं होती हैं। हर शहर में एक-दो हीरामन हुआ करते हैं। सबको साहित्य की गाड़ी चलाने वाला एक ठो गाड़ीवान चाहिए। बिना एक हीरामन के साहित्य की गाड़ी आगे नहीं बढ़ती। हीरामनों की डिमांड बनी रहती है। हीरामन सब टोटके जानते थे। बिना खर्चा के साहित्य में चर्चा नहीं होती। आसामी देखते, तो कैश की डिमांड बढ़ा देते और आसामिन हुई, तो यों ही कृपालु हो उठते। हिंदी में लेखिकाओं के घोर अकाल को देख वह लेखिका बनाने का अपना ऐतिहासक कर्तव्य निभाने चले थे।
उन्होंने ‘नई कहानी’ का ‘द विंसी कोड’ पढ़ रखा था, जो कहता था कि हर लेखक के पीछे एक पत्नी के अलावा एक लेखिका (प्रेमिका) जरूरी होती है। ऐसी ही किसी शुभ घड़ी में उनके पास एक संभावनाशील लेखिका आई। आप हमारी कथा देख लें, यह विनती की। साहित्य की अनजान नगरी में हम नई हैं। आप सर्वज्ञ हैं। हमारी कथा ठीक न लगे, तो ठीक कर दें। हीरामन ने बड़ी मेहनत से कथा करेक्ट की। इतनी  तो कभी अपनी करेक्ट न कर सके। लेखिका को प्रकाशक मिल गए। कथा प्रकाशित हो गई और देखते-देखते लेखिका का नाम फैल गया। हर पत्रिका में रिव्यू हो गया। हीरामन की कल्पना से भी स्वतंत्र शक्तियां साहित्य में सक्रिय हो उठीं। सब गुण ग्राहक थे। इनाम-इकराम की बातें फैलने लगीं। लेखिका आजाद हो गई। पंख फैलाने लगी।
हीरामन निराशा में डूब गए। बदले की कार्रवाई में उनका मर्द जाग गया। फिल्मी हीरो की तरह कहने लगे: इतना घमंड? हम बना सकते हैं, तो मिटा भी सकते हैं। कसम खाते हैं कि अब कभी किसी हीरा बाई को लेखिका नहीं बनाएंगे! हिंदी में स्त्रियों का अपना पक्ष ज्यों ही आजाद होता है,  हीरामनों का मर्दवाद कह उठता है, ‘उसे क्या आता था? मैंने बनाया है उसे लेखिका!’ ऐसे स्त्री-विरोधी वातावरण में अगर कोई लेखिका दुर्दमनीय हो साहित्य में निकल पड़ती है, तो उसकी जय बोलने का मन करता है..।
साभार दैनिक हिन्दुस्तान दिनांक 3 मार्च 2013

Monday, February 18, 2013

पितृभक्ति में श्रवण कुमार माधवी से छोटा होकर भी अधिक याद क्यों किया जाता है ?


माता पिता की सेवा का जब भी नाम आता है तो हमेशा श्रवण कुमार का नाम लिया जाता है।
क्या इसके पीछे भी पुरूषवादी मानसिकता ही कारण बनती है ?
क्या वैदिक इतिहास में किसी लड़की ने अपने माता पिता की सेवा नहीं की ?
अनगिनत लड़कियां ऐसी हुई हैं जिन्होंने अपने माता पिता की प्रतिष्ठा के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया।
एक लड़की का सब कुछ क्या होता है ?
उसकी इज़्ज़त, उसकी आबरू !
विवाह हो जाए तो पति के लिए उसके नाज़ुक जज़्बात और बच्चे हो जाएं तो अपने लाडलों की ममता !
माधवी ने अपने पिता ययाति की प्रतिष्ठा बचाने के लिए यह सब कुछ गंवा दिया लेकिन किसी से शिकायत तक न की। उसके त्याग और बलिदान के सामने श्रवण कुमार का शारीरिक श्रम कहीं नहीं ठहरता लेकिन फिर भी माधवी का नाम पितृभक्ति में कभी नहीं लिया जाता।
ऐसा क्यों ?


Tuesday, February 5, 2013

औरत का क़ानूनी जलवा


चपरासी के अलावा ऑफ़िस के सभी लोग जा चुके थे। सीईओ अपने रूम में जुटे हुए थे। हालाँकि उनकी उम्र काफ़ी हो चुकी थी फिर भी बस एक जोश था, जो उन्हें अब भी नौजवानों की तरह जुटे रहने के लिए मजबूर करता था लेकिन जवानी बीत जाए तो सिर्फ़ जोश से ही काम नहीं चलता। सीईओ साहब जल्दी ही निपट गए। 
उनकी सेक्रेटरी को भी जो कुछ ठीक करना था, हमेशा की तरह ठीक कर लिया। सीईओ साहब ने अपनी सेक्रेटरी के चेहरे पर नज़र डाली। वहां कोई शिकायत न थी। वह मुतमईन हो गए और अपना ब्रीफ़ेकेस उठाकर चलने ही वाले थे कि सेक्रेटरी ने आज का न्यूज़ पेपर उनके सामने रख दिया, जिसमें यौन हमले और शोषण का अध्यादेश लागू होने की ख़बर थी।
सेक्रेटरी मुस्कुराते हए बोली -‘आप क्या चुनना पसंद करेंगे, 20 साल की क़ैद या ...?‘
‘क...क...क्या मतलब ?‘- सीईओ साहब हकला भी गए और बौखला भी गए।
सेक्रेटरी ने जवाब देने के बजाय एक एप्लीकेशन उनके सामने रख दी। उसका पति कंपनी का 50 लाख रूपये का स्क्रेप बेचने की अनुमति चाहता था। 
‘यह तुम ठीक नहीं कर रही हो।‘-सीईओ साहब ने हिम्मत करके उसे चेताया।
‘...और आज तक आप जो कुछ करते आए हैं, वह ठीक था ?’-सेक्रेटरी ने तल्ख़ लहजे में ज़रा ऊँची आवाज़ करके कहा।
‘वह सब तुम्हारी रज़ामंदी से होता था।‘-साहब ने उसे याद दिलाया।
‘हाँ, मेरी रज़ामंदी से होता था क्योंकि मैं घुटन से आज़ादी पाना चाहती थी।‘-उसने टेबल पर बैठते हुए उसकी जेब से उसका पेन निकाला और उसके हाथ में थमा दिया।
‘...तो इसके लिए तुमने मेरा इस्तेमाल किया ?‘-सीईओ साहब कुर्सी पर न बैठे होते तो शायद वह चकरा कर गिर जाते।
‘हाँ किया और आपकी रज़ामंदी से ही किया।‘-उसने चेक को उनके बिल्कुल सामने कर दिया।
‘...तो अब क्या चाहती हो ?‘-उन्होंने थके से लहजे में पूछा।
‘बस एक साइन ...‘-उसने ज़रा इठलाकर उनके गाल पर उंगली फिराई।
सीईओ साहब कुछ तय नहीं कर पा रहे थे। तभी लेडीज़ पर्स में रखे मोबाईल पर किसी की कॉल आई। उसने टेबल से उतर अपना मोबाईल चेक किया।
‘जल्दी कीजिए। मेरे पति बाहर खड़े हैं। अगर मैं बाहर न गई तो फिर वह यहाँ अंदर चले आएंगे।‘-सेक्रेटरी ने उसे दबे अल्फ़ाज़ में धमकी दी। 
साहब ने उससे पेन ले लिया और एप्लीकेशन पर मंजूरी लिख कर अपने साईन बनाने लगे। वियाग्रा उनके हाथ को काँपने से नहीं रोक पा रही थी। आज उन्हें औरत अपने से बहुत ज़्यादा मज़बूत नज़र आ रही थी . नया क़ानून उसके साथ था।

Tuesday, September 18, 2012

औरत की काया को ताउम्र सुंदर, सुडौल व स्वस्थ बनाए रखने के लिये सुंदर आयुर्वेदिक नुस्खा Sudol


मातृशक्ति के शरीर को ताउम्र सुंदर, सुडौल व स्वस्थ बनाए रखने के लिये सुंदर आयुर्वेदिक नुस्खा :-
महिलाएँ प्रायः स्वभाव से ही भावुक होती हैं. ममता, प्यार, दया और सेवाभाव, ये सभी गुण उनमें जन्म से ही होते हैं. यही वे गुण हैं जिनके कारण 'मातृशक्ति' शादी के बंधन में बंधने के बाद पराए घर को भी अपनाकर स्वयं को दिन-रात उस परिवार की सेवा में लगा देती है. ऐसे में अधिकतर महिलाएँ अपने ऊपर ध्यान नहीं दे पाती हैं. ध्यान नहीं देने के कारण वे कई बार अपनी बीमारियों को छिपाए रखती हैं. इस तरह अंदर ही अंदर वे कमजोर होती जाती हैं. श्वेत-प्रदर, रक्त प्रदर, मासिक धर्म की अनियमितता, कमजोरी, सिरदर्द, कमरदर्द आदि ये सभी बीमारियाँ शरीर को स्वस्थ और सुडौल नहीं रहने देती हैं.
इसलिए हम आपको ''स्वर्ण मालिनी'' वसंत नामक एक ऐसा आयुर्वेदिक नुस्खा बताने जा रहे हैं जो महिलाओं की हर तरह की कमजोरी को दूर करता है.
(अ) ''स्वर्ण मालिनी'' वसंत बनाने हेतु आवश्यक आयुर्वेदिक सामग्री :- 
१/ स्वर्ण भस्म या वर्क = 10 ग्राम
२/ मोती पिष्टी = 20 ग्राम
३/ शुद्ध हिंगुल = 30 ग्राम
४/ सफेद मिर्च = 40 ग्राम
५/ शुद्ध खर्पर = 80 ग्राम
६/ गाय के दूध का मक्खन = 25 ग्राम
7/ थोड़ा सा नींबू का रस.

(ब) बनाने की विधि :- 
पहले स्वर्ण भस्म या वर्क और हिंगुल को मिला कर एक जान कर लें. फिर शेष द्रव्य मिलाकर मक्खन के साथ अच्छी तरह घुटाई करें. अब नींबू का रस कपड़े की चार तह करके छान कर इसमें मिलायें. अब इसकी आठ-दस दिन तक नियमित रूप से इतनी घुटायी करें कि इसका चिकनापन पूरी तरह दूर हो जावे. अब इसकी एक-एक रत्ती की गोलियाँ बना लें.
(स) सेवन की विधि :- 
1 या 2 गोली सुबह शाम एक चम्मच च्यवनप्राश के साथ सेवन करें.
(द) ''स्वर्ण मालिनी'' वसंत के लाभ एवं उपलब्धता :-
इस दवाई का सेवन करने से महिलाओं को प्रदर रोग, शारीरिक क्षीणता व हर प्रकार की कमजोरी से मुक्ति मिलती है और शरीर स्वस्थ और सुडौल बनता है. इसके सेवन से शरीर के सभी अंगों को ताकत मिलती है व शरीर बलशाली बनता है. यह दवाई ''स्वर्ण मालिनी'' वसंत के नाम से ही बाजार में भी मिलती है.
फ़ेसबुक से साभार

Saturday, September 15, 2012

ऐसे बनाएं खुद को मजबूत

यदि आप अक्सर शंकाओं में घिरी रहती हैं, कोई भी निर्णय लेने से हिचकिचाती हैं या फिर खुद पर भी भरोसा नहीं कर पाने के कारण कोई नई पहल नहीं कर पातीं, तो इसका मतलब है आपको खुद को मजबूत बनाने की जरूरत है। कैसे? आइये जानें..
आप होम मेकर हैं या फिर नौकरी पेशा महिला, चुनौतियों से दो-चार होना ही पड़ता है। कई पल ऐसे भी आते हैं, जब खुद से ही विश्वास डगमगाने लगता है। ऐसे में जरूरत होती है कुछ ऐसे बदलावों की, जो आपको भीतर तक मजबूत बनाएं, साथ ही आपको अलग पहचान दिलाने में भी मदद करें।  
1. खुद पर करें विश्वास: कैसी भी स्थिति क्यों न हो, यह विश्वास बनाए रखें कि आप इसका सामना कर सकती हैं। हमेशा ध्यान रखें कि आप  खुद के बारे में जितना सोचती हैं, उससे कहीं अधिक काम करने में सक्षम हैं।   
2. प्रश्न पूछें: पहले से यदि कुछ होता रहा है तो यह जरूरी नहीं कि वह सही भी हो या फिर आपके लिए भी उसकी उतनी ही उपयोगिता हो। सच्चाई तो यह है कि हमारी अधिकतर सीमाएं खुद की बनाई होती हैं। पहले से अपने मन में धारणाएं बनाकर रखना संभावनाओं को खत्म कर देता है। 
3. करें वही, जो हो सही: किसी भी चीज या अच्छाई-बुराई से बड़ी बात यह है कि आप खुद के प्रति ईमानदार रहें। फिर भले ही यह रास्ता मुश्किल ही क्यों न हो। हो सकता है कि कुछ बातें आपकी लोगों को बुरी लग सकती हैं, पर यदि आप सही हैं तो पूरा परिवार या सहकर्मी जल्द ही आपकी बात को स्वीकार करने लगेंगे।
4. नहीं कहना भी सीखें: हर बात के साथ सहमति जताने का एक मतलब है खुद को सीमित करना। कई बार सर्वश्रेष्ठ तक पहुंचने के लिए दूसरे अच्छे विकल्पों को भी ना कहना पड़ता है। घर-परिवार या कार्यस्थल पर काम करते हुए आपको अपनी प्राथमिकताएं हमेशा ध्यान रखनी चाहिए। ऐसे में यदि कोई बात ऐसी है, जो आपको पूरी तरह नामंजूर है या आपकी क्षमता से बाहर है, तो उसे अवश्य बताएं। अन्यथा हर चीज से तालमेल बना लेने के आपके स्वभाव का फायदा उठाने में लोगों को देर नहीं लगेगी। 
5. शिकायत करना बंद करें: आप अपनी समस्याओं से तब तक बाहर नहीं निकलेगी,जब तक आप उनके बारे में शिकायत करती रहेंगी। आप क्या चाहती हैं, इस पर अपनी ऊर्जा लगाएं, बजाय इसके कि आप क्या नहीं चाहतीं। इसी तरह आप क्या कर सकती हैं, इस पर ध्यान दें, यह नहीं कि आप क्या नहीं कर सकतीं। 
6. बड़ा सोचें: यदि आप ज्यादा बेहतर कर सकती हैं तो कम से समझौता क्यों करें। अपनी दूरदृष्टि को व्यापक बनाएं। ध्यान रखें कि यदि आप सोच सकती हैं तो आप उस काम को कर भी सकती हैं। सभी बड़े काम पहले मन से शुरू होते हैं। कभी-कभार अपने प्रियों की भी छोटी-छोटी बातें चुभ जाती हैं, पर उस समय तस्वीर के बड़े पक्ष को देखें। 
7. अनुकूलता से बाहर निकलें: अपने जीवन को दूसरों की राय के आधार पर न चलाएं। सुविधाओं से बाहर निकलने का साहस दिखाएं। आप क्या सोचती हैं, उसको अभिव्यक्त जरूर करें। तभी जो सोचती हैं, वह कर सकेंगी। 
8. आवाज उठाएं: जितना आप सहती हैं, उतना ही आपको सहने के लिए मजबूर किया जाता है। यदि ऐसा कुछ है, जो आप सच में कहना या करना चाहती हैं, तो अवश्य उन्हें बताएं, जो आपको समझते हैं। अपनी बात रखने से पीछे न हटें। निर्भय होकर अपनी बात कहना सीखें। 
9. खुद से हार न मानें: जितने मजबूत आपके इरादे होंगे, उतनी ही सफलता आपको मिलेगी। मुश्किल स्थितियां आपकी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं। जितना अधिक चुनौतियों का सामना करेंगी, उतना ही सबके सामने खुद को मजबूती से रख सकेंगी। ऐसे में शुरुआती संघर्षो से घबराएं नहीं। 
10. कदम उठाएं: जीवन में सफलता उसी को मिलती है, जो अपने तमाम डर और शंकाओं के बावजूद कदम उठाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में निर्णय ले पाते हैं। जोखिम के बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। अपने डर से आगे निकलने की कोशिश करें।
साभार हिंदुस्तान 15-09-2012
http://www.livehindustan.com/news/lifestyle/lifestylenews/article1-Personality-development-50-50-262339.html

Tuesday, September 4, 2012

आधुनिकता के साये में कामकाजी पति-पत्नी

'दृश्य और अदृश्य जगत' ब्लॉग पर 
गीता झा

आधुनिकता के साये में उबाऊ दाम्पत्य जीवन

दांपत्य या गृहस्थ  -जीवन एक महत्पूर्ण संस्था है जिसमें नर-नारी के निर्मल सामीप्य का समर्थन होता है. कुछ एक अपवाद , विवशता या अति उच्च - स्तरीय आदर्शवादिता के तथ्यों को छोड़ दिया जाये तो दाम्पत्य जीवन सुयोग- संयोग से विकसित एक स्वाभाविक और सरल विकास क्रम - व्यवस्था  है.

उपभोत्ता संस्कृति और आधुनिकता ने न केवल व्यक्ति और समाज को ही प्रभावित किया हैं वरन पारिवारिक संस्था की जडें भी हिला कर रख दी हैं.

आधुनिक जीवन शैली , अत्यधिक महत्वकांक्षा और अपना -अपना करियर बनाने का लोभ अपनाते दम्पति , आपस में ज्यादा रूचि नहीं रखते हैं और मजबूरीवश उनका सम्बन्ध केवल एक छत्त के नीचे रहना मात्र ही होता है.

पति-पत्नी-एकल परिवार

पहले संयुक्त परिवार में सास- ससुर , चाचा -चाची, जेठ-जेठानी, ननद- नंदोई इत्यादि का दाम्पत्य -जीवन में काफी दखल रहता था.  पति-पत्नी के अहम टकराने के फलस्वरूप दाम्पत्य जीवन के बिखरने से पहले ही वे दखल दे देते थे और पति-पत्नी का निजी कलेश-कलह आगे नहीं बढ पाता था. अब संयुक्त परिवार विघटित होने लगे  हैं, दखल देने वाला कोई रह नहीं गया है .दूर के नाते-रिश्तेदार भी आत्मीयता के आभाव में प्रभावशाली दखल नहीं दे पाते है, इससे पति- पत्नी के अपने- अपने अहम और  स्वार्थ  की जबरदस्त भिडंत होती है और गृहस्थी  में दरार, टूटन और विघटन  के दर्शन होते हैं.



करियर सवांरने  के लोभ में मध्यम एकांकी -परिवार के पति-पत्नि अपने बच्चों को  नौकरों के हवाले , केयर-सेंटर, बालवाडी या प्री - नर्सरी  में छोड़ कर निश्चिंत हो जाते हैं. केवल नामी स्कूल में नाम लिखा कर, मोटी-मोटी फीस भर कर और अनेकों tuition और coaching  करा कर वे आपने अभिभावक होने के फ़र्ज़ की इतिश्री समझ लेते हैं. इन बच्चों को  पारिवारिक प्रेम-पोषण-सरंक्षण से वंचित रहने के कारण कई मनोविज्ञानिक और व्यक्तिगत समस्याओं  का सामना करना पड़ता है.

पति-पत्नी-करियर

अक्सर  कामकाज करने वाले पति या पत्नि में जो पहले घर आ जाता है, उसे दूसरे  के बाद में आने की कोई उमंग और अधीरता नहीं होती हैं. आधुनिकता की  दुहाई देने वाले पति भी  अकसर पुरातन -पंथी मानसिकता से ग्रसित पाए गए हैं  . पतियों  के अनुसार घर-गृहस्ती चलाना  स्त्रियों का ही कार्य हैं , क्योकि वे उसे संरक्षण  देतें हैं, काम  करने की आज़ादी देतें हैं, समाज  में सर उठा  कर चलने  का गर्व और अधिकार देते हैं , वर्ना अविवाहित महिलाएं या जिनके पति  नहीं होते हैं , उन्हें समाज़ जीने ही कहाँ देता हैं ?



ऐसे पतियों की दिली ख्वाइश होती हैं की अगर पत्नियाँ  उनसे पहले घर आ जाती हैं तो , मुस्करा कर उनका स्वागत करे, उनके कपडे निकाल कर दे, चाय-पानी-नास्ता हाजिर रखे और घर, आपने ऑफिस या बाल-बच्चों की शिकायतों का पोटला न लेकर बैठ जाये.
यहाँ पत्नियों का कहना हैं की वे भी तो घर थक कर आती हैं, उनका भी विश्राम करने का मूड होता हैं,  वैसे अगर पति पहले घर पर आ जाये तो कौन सा   मुस्करा के दरवाजे पर उनका स्वागत करता हैं या चाय-पानी पेश करता हैं ?
करियर  की बुलंदी को छूने की चाहत में अक्सर दम्पतियों में एक दूसरे को धोखा देने और अपने सहकर्मियों  से सम्बन्ध बनाने की प्रवृति धड़ल्ले से विकसित हुई हैं. वैवाहिक संबंधों से छुटकारा पाने की साध पाले हुए लोग अपनी करियर की सफलता के लिए अपने सहकर्मी या जिनसे करियर में उन्नति के अवसर मिलते हैं उनसे अन्तरंग सम्बन्ध बनाने से नहीं हिचकिचाते. यानि करियर के लिए दाम्पत्य-जीवन को दाव पर लगाने वालों की भी कमी नहीं है.

पति-पत्नी-सेक्स

कामकाजी दम्पति अक्सर शीघ्र ही सेक्स से विरक्त हो जाते हैं. बच्चों के जन्म के बाद या अधिकतर दिनभर की भाग दौड़ , विभिन्न प्रकार के तनाव, वातावरण के प्रदुषण और शारीरिक थकान के कारण पति-पत्नी एक दूसरे के लिए क्रमशः साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिका बनते जाते हैं.



अपने-अपने अहम , स्वार्थ और आकाँक्षाओं में तालमेल न बैठा पाने के कारन यौन -संबंधों में शिथिलता आती जाती हैं. केवल यौन -सुख पर आधारित दाम्पत्य - जीवन मानसिक और भावनात्मक जुड़ाव की कमी के कारण बोझिल और उबाऊ हो जाते हैं.

पति-पत्नी- विवाहत्तेर संबंध
आमतौर पर माना जाता हैं की यौन-सुख की तलाश में पति-पत्नी विवाहत्तेर सम्बन्ध बनातें हैं. लेकिन हकीकत यह हैं की अक्सर एक दूसरे से बेज़ार हुए  पति -पत्नी जब एक दूसरे की रिपोर्ट-कार्ड में परफोर्मेंस  - वइस,  पासिंग - मार्क्स भी नहीं देते हैं , तभी  वे व्यर्थ में अपने को ------तीसमारखां सिद्ध ----करने के चक्कर में  यहाँ-वहाँ मारे-मारे फिरते हैं.



अपने-अपने करियर को प्रमुखता देते हुए , साथ - साथ काम करने के कारण, लगाव, निर्भरता, अनुराग, और हँसी मजाक़ के कारण अक्सर दम्पति बाहर भावनात्मक सम्बन्ध बना लेते हैं जिसका उदेश्य सेक्स न होकर केवल अपने उबाऊ और कतराने वाले दाम्पत्य-जीवन से कुछ समय के लिए छुटकारा पाना होता है.


पति-पत्नी-सीक्रेट

आजकल दम्पति  पूरे जोर शोर से जतन- पूर्वक अपनी निजता को गोपनीय बना कर रखते हैं  और दूसरी ओर अपने पार्टनर की पूरी -पूरी जासूसी भी करते हैं. एक दूसरे के मोबाइल की कॉल  - डिटेल खंगालना, फ़ेस -बूक की अप - डेट - स्टेटस चेक करना ओर एक दूसरे के देनिक कार्यक्रमों ओर मूड -स्विंग पर पैनी दृष्टी रखना.  यानि दोहरे मापदंड के सभी फोर्मुले अपनाना.

वैवाहिक सम्बन्ध कामचलाऊ तरीके से चलता रहे इसलिए दंपत्ति अक्सर अपने ऑफिस या व्यवसाय की अधिकतर बातें या जानकारी एक दूसरे को नहीं बतातें हैं. उनके अनुसार अगर जरुरत से अधिक बताया गया तो दूसरे पक्ष की दखलंदाज़ी बढ सकती हैं, अपेक्षाएं ओर मांगें बढ सकती हैं और शक की सुई उनके चरित्र की और घूम सकती हैं. इसलिए सब कुछ बताना जरुरी नहीं होता है.

पति-पत्नी- अन्तरंग समय

ऑफिस से घर लौट कर सोते समय तक, छुट्टी के दिन, या एकांत के पलों में अधिकतर दम्पति एक दूसरे के साथ से बचने के लिए अपने लेप- टॉप या मोबाइल का इस्तमाल करना या टी. वी . के प्रोग्राम्स देखना अधिक पसंद करतें हैं.

अक्सर पत्नी के मायके जाने पर या पति के लम्बे टूर पर जाने पर दम्पति , स्वतंत्रता की सुखमय अनुभूति को बांटने के लिए  अपने - अपने कार्यस्थल पर जुलाब जामुन और समोसों  की  पार्टी देते  हैं.

पति-पत्नी- कुछ हमारे हड़प्पा युगीन विचार




लेकिन हकीकत यही है   की पति-पत्नी सर्वश्रेष्ठ   मित्र है , पति - पत्नी  आदर्श जीवनसाथी हैं और पति-पत्नी बेजोड़ प्रेमी भी हैं. जरुरत हैं थोडा संयम, त्याग, सेवा और प्रेम भावना की . नितांत वैक्तित्व  आपेक्षाओं और आवश्कताओं को सामंजस्य  , समर्पण और निष्ठा में बदलने की . शरीर , मन और भावना के तल पर  मिलाने से ही दम्पति  true soul -mate बन पाते हैं.

Dum dara dum dara मस्त  मस्त
Dara dum dara dum dara मस्त  मस्त
Dara dum dara  dum dum       
ओ  हमदम  बिन  तेरे  क्या  जीना 
ओ  हमदम  बिन  तेरे  क्या  जीना 

Thursday, August 2, 2012

घर के साथ बाहर का काम कर रहा है औरत को बीमार Women empowerment

सेवा क्षेत्र में घटती महिलाओं की भागीदारी
ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री 
महिलाओं की सेवा क्षेत्र में लगातार घट रही भागीदारी को देखते हुए योजना आयोग ने सरकार को यह सुझाव दिया है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान देश में सृजित होने वाली ढाई करोड़ नई नौकरियों में से आधी महिलाओं को मिलें। यह प्रस्ताव महिला सशक्तीकरण को नई दिशा दे सकता है। यूं तो ‘महिला सशक्तीकरण’ एक व्यापक अवधारणा है, पर उसका केंद्रबिंदु ‘निर्णय लेने की स्वतंत्रता’ है और यह तभी संभव है, जब महिलाएं आत्मनिर्भर हों। महिलाएं देश का महत्वपूर्ण मानव संसाधन हैं, इसलिए सामाजिक-आर्थिक विकास का अत्यंत महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व भी हैं। चिंता का विषय यह है कि पिछले तीन दशकों में महिलाओं के वंचित रह जाने की समस्या को खत्म करने में सफलता नहीं मिली है। आम राय यह है कि आर्थिक मोर्चे पर भारतीय महिलाएं बड़ी तेजी के साथ आगे बढ़ रही हैं, परंतु आंकड़े इससे उलट कुछ और बयान कर रहे हैं। 2009-10 के एक सर्वे के मुताबिक, ‘कार्य’ में महिलाओं की भागीदारी की दर 2004-05 में 28.7 प्रतिशत थी, जो 2009-10 में घटकर 22.8 प्रतिशत रह गई। जब देश के चुनिंदा आला पदों पर आसीन महिलाएं फोर्ब्स पत्रिका में स्थान पा रही हैं, तो आर्थिक मोर्चे पर महिलाओं की भागीदारी घटना हैरत की बात है। दरअसल, भारतीय महिलाओं के लिए यह एक ऐसा संक्रमण काल है, जहां एक ओर उनके लिए आर्थिक स्वतंत्रता ने द्वार खोल रखे हैं, तो दूसरी ओर उनकी परंपरागत पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं, जिन्हें निभाने की सीख उन्हें बचपन से ही दी जाती है। यह जरूर है कि शहरी संस्कृति से ताल्लुक रखने वाले ऐसे मध्यवर्गीय परिवारों की तादाद में बढ़ोतरी हुई है, जिन्होंने अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए औरतों को बाहर जाकर काम करने की ‘इजाजत’ दी है। इसके बावजूद उन्हें परिवार के कार्यो से मुक्ति मिलती हो, ऐसा नहीं है। दूसरी ओर कार्यस्थल पर होने वाला लैंगिक भेदभाव, उनके प्रबंधन, नेतृत्व व कार्यक्षमताओं पर विश्वास न करने की मानसिकता, उन्हें उनके पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षाकृत अधिक चुनौती देती है। यही दोहरा दबाव भारतीय महिलाओं  को ‘आर्थिक स्वतंत्रता’ की सोच को ही तिलांजलि देने के लिए प्रेरित करता है। ब्रिटेन में हुए एक सर्वे के मुताबिक, सुबह छह बजे बिस्तर छोड़ने के बाद से रात 11 बजे से पहले तक उन्हें एक पल की फुरसत नहीं होती। अनवरत काम से उनका शरीर बीमारियों का गढ़ बनने लगता है। यह स्थिति भारतीय संदर्भ में और गंभीर है, जहां पुरुष घरेलू कामकाज में सहयोग देना आज भी उचित नहीं समझते। क्या स्त्री की इससे मुक्ति संभव है? है, बशर्ते परिवार के पुरुष सदस्य उसे अपनी ही भांति इंसान मानना शुरू कर दें और घर की जिम्मेदारियों को निभाने में उसके वैसे ही सहयोगी बनें, जैसे परिवार की आर्थिक सुदृढ़ता के लिए स्त्री ने बाहर जाकर काम करना स्वीकारा है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
साभार दैनिक हिन्दुस्तान दिनांक 3 अगस्त 2012 पृष्ठ 12 
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-247802.html

Tuesday, July 31, 2012

इंसानी दिमाग स्त्री और पुरुषों को अलग-अलग तरीके से देखता है. स्त्रियों का दिमाग भी यह भेदभाव करता है.

नज़र का फर्क 
यह शिकायत महिलाओं, बल्कि संवेदनशील पुरुषों की भी रही है कि समाज में स्त्री को एक वस्तु की तरह देखा जाता है, इंसान की तरह नहीं। मनोरंजन के साधन और व्यावसायिक हित महिलाओं को वस्तु की तरह पेश किए जाने को बढ़ावा दे रहे हैं। स्त्री-पुरुष बराबरी हासिल करने के लिए जरूरी है कि स्त्रियों को सिर्फ एक वस्तु नहीं, एक इंसान की तरह सम्मान देना जरूरी है। लेकिन इसके लिए यह जानना जरूरी है कि इस दुराग्रह या पक्षपात की जड़ें कितनी गहरी हैं। द यूरोपियन जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी में एक शोध प्रकाशित हुआ है, जिसके मुताबिक इंसानी दिमाग स्त्री और पुरुषों को अलग-अलग तरीके से देखता है। वह पुरुषों को अलग नजरिये से देखता है और स्त्रियों को अलग। इसी वजह से स्त्रियों को यौन सुख का एक साधन मानने की प्रवृत्ति विकसित हुई है। शोध एक चौंकाने वाला निष्कर्ष भी देता है कि सिर्फ पुरुषों का ही नहीं, स्त्रियों का दिमाग भी यह भेदभाव करता है। जब हम किसी पुरुष को देखते हैं, तो हमारे दिमाग में जिस तरह की प्रक्रिया सक्रिय होती है, उसे ‘ग्लोबल’ या सार्वभौमिक संज्ञान प्रक्रिया कहते हैं। यह ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें हम किसी व्यक्ति को उसकी संपूर्णता में देखते और पहचानते हैं। वहीं जब हम किसी स्त्री को देखते हैं, तो आम तौर पर हमारा दिमाग जिस प्रक्रिया का सहारा लेता है, उसे ‘लोकल’ या स्थानीय संज्ञान प्रक्रिया कहते हैं। इस प्रक्रिया से हम चीजों को, जैसे कार या मकान को देखते हैं। इसमें हम किसी चीज को कई हिस्सों के एक समुच्चय की तरह देखते हैं। यह देखा गया कि स्त्री और पुरुष, दोनों के दिमाग एक ही तरह से काम करते हैं, अर्थात स्त्रियां भी स्त्रियों को वस्तु की तरह ही देखती हैं। वैज्ञानिकों ने इसके लिए एक प्रयोग किया। उन्होंने कुछ पुरुषों और स्त्रियों को कई स्त्री-पुरुषों की तस्वीरें दिखाईं। इसके बाद उन्हें तस्वीरों को फिर से दिखाया गया, इस वक्त मूल तस्वीर के साथ उसी तस्वीर को थोड़ा बदलाव करके दिखाया गया, जिसमें उनके किसी यौन सूचक अंग को ज्यादा स्पष्ट किया गया था। इसके बाद इन लोगों से पूछा गया कि उन्होंने पहले कौन-सी तस्वीर देखी थी? शोधकर्ताओं ने पाया कि ज्यादातर स्त्री-पुरुषों ने महिलाओं की तस्वीरों के बारे में ठीक-ठीक बता दिया, लेकिन पुरुषों की तस्वीरों के बारे में उतना ठीक नहीं बता पाए। इसका मतलब यह है कि पुरुषों के शारीरिक रूप में परिवर्तन पर वे ध्यान नहीं दे पाए, लेकिन स्त्रियों की तस्वीरों में उन्हें फर्क तुरंत समझ में आ गया। वैज्ञानिक यह मानते हैं कि हमारे दिमाग की यह प्रक्रिया जैविक वजहों से हो सकती है। प्रजनन और वंश-वृद्धि जीवों का बुनियादी संवेग है। चूंकि प्रजनन स्त्रियों से होता है, इसलिए आदिम युग से पुरुषों का दिमाग स्त्रियों को यौन और प्रजनन की दृष्टि से देखने का आदी हो गया है। हालांकि यह जरूर उलझाने वाला तथ्य है कि स्त्रियों के साथ ऐसा क्यों है। वैज्ञानिकों का कयास है कि शायद आदिम युग में स्पर्धा और तुलना की वजह से उनमें भी पुरुषों की तरह ही अन्य स्त्रियों को वस्तु की तरह देखने की आदत विकसित हो गई है। लेकिन अब मानव समाज बहुत विकसित हो गया है और उसे आबादी बढ़ाने वाले आदिम संवेगों की जरूरत नहीं है। अब तो समस्या आबादी पर नियंत्रण की है। सभ्यता और विज्ञान के विकास ने मानव जाति के लिए कई बुनियादी पैमाने बदल डाले हैं, इन्हीं में स्त्री-पुरुष के बीच गैरबराबरी का मसला भी है। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि चूंकि वे गैरबराबरी और स्त्रियों को ‘वस्तु’ मानने के जैविक आधार को कुछ हद तक जान पाए हैं, तो इससे इनके बीच की गैरबराबरी मिटाने में भी सहायता मिलेगी।  
संपादकीय दैनिक हिन्दुस्तान दिनांक 30 जुलाई 2012
Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/subeditorial/article1-story-57-116-246626.html