नज़र का फर्क
यह शिकायत महिलाओं, बल्कि संवेदनशील पुरुषों की भी रही है कि समाज में
स्त्री को एक वस्तु की तरह देखा जाता है, इंसान की तरह नहीं। मनोरंजन के
साधन और व्यावसायिक हित महिलाओं को वस्तु की तरह पेश किए जाने को बढ़ावा दे
रहे हैं। स्त्री-पुरुष बराबरी हासिल करने के लिए जरूरी है कि स्त्रियों को
सिर्फ एक वस्तु नहीं, एक इंसान की तरह सम्मान देना जरूरी है। लेकिन इसके
लिए यह जानना जरूरी है कि इस दुराग्रह या पक्षपात की जड़ें कितनी गहरी हैं।
द यूरोपियन जर्नल ऑफ सोशल साइकोलॉजी में एक शोध प्रकाशित हुआ है, जिसके
मुताबिक इंसानी दिमाग स्त्री और पुरुषों को अलग-अलग तरीके से देखता है। वह
पुरुषों को अलग नजरिये से देखता है और स्त्रियों को अलग। इसी वजह से
स्त्रियों को यौन सुख का एक साधन मानने की प्रवृत्ति विकसित हुई है। शोध एक
चौंकाने वाला निष्कर्ष भी देता है कि सिर्फ पुरुषों का ही नहीं, स्त्रियों
का दिमाग भी यह भेदभाव करता है। जब हम किसी पुरुष को देखते हैं, तो हमारे
दिमाग में जिस तरह की प्रक्रिया सक्रिय होती है, उसे ‘ग्लोबल’ या
सार्वभौमिक संज्ञान प्रक्रिया कहते हैं।
यह
ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें हम किसी व्यक्ति को उसकी संपूर्णता में
देखते और पहचानते हैं। वहीं जब हम किसी स्त्री को देखते हैं, तो आम तौर पर
हमारा दिमाग जिस प्रक्रिया का सहारा लेता है, उसे ‘लोकल’ या स्थानीय
संज्ञान प्रक्रिया कहते हैं। इस प्रक्रिया से हम चीजों को, जैसे कार या
मकान को देखते हैं। इसमें हम किसी चीज को कई हिस्सों के एक समुच्चय की तरह
देखते हैं। यह देखा गया कि स्त्री और पुरुष, दोनों के दिमाग एक ही तरह से
काम करते हैं, अर्थात स्त्रियां भी स्त्रियों को वस्तु की तरह ही देखती
हैं। वैज्ञानिकों ने इसके लिए एक प्रयोग किया। उन्होंने कुछ पुरुषों और
स्त्रियों को कई स्त्री-पुरुषों की तस्वीरें दिखाईं। इसके बाद उन्हें
तस्वीरों को फिर से दिखाया गया, इस वक्त मूल तस्वीर के साथ उसी तस्वीर को
थोड़ा बदलाव करके दिखाया गया, जिसमें उनके किसी यौन सूचक अंग को ज्यादा
स्पष्ट किया गया था। इसके बाद इन लोगों से पूछा गया कि उन्होंने पहले
कौन-सी तस्वीर देखी थी? शोधकर्ताओं ने पाया कि ज्यादातर स्त्री-पुरुषों ने
महिलाओं की तस्वीरों के बारे में ठीक-ठीक बता दिया, लेकिन पुरुषों की
तस्वीरों के बारे में उतना ठीक नहीं बता पाए। इसका मतलब यह है कि पुरुषों
के शारीरिक रूप में परिवर्तन पर वे ध्यान नहीं दे पाए, लेकिन स्त्रियों की
तस्वीरों में उन्हें फर्क तुरंत समझ में आ गया।
वैज्ञानिक यह मानते हैं कि हमारे दिमाग की यह प्रक्रिया जैविक वजहों से हो
सकती है। प्रजनन और वंश-वृद्धि जीवों का बुनियादी संवेग है। चूंकि प्रजनन
स्त्रियों से होता है, इसलिए आदिम युग से पुरुषों का दिमाग स्त्रियों को
यौन और प्रजनन की दृष्टि से देखने का आदी हो गया है। हालांकि यह जरूर
उलझाने वाला तथ्य है कि स्त्रियों के साथ ऐसा क्यों है। वैज्ञानिकों का
कयास है कि शायद आदिम युग में स्पर्धा और तुलना की वजह से उनमें भी पुरुषों
की तरह ही अन्य स्त्रियों को वस्तु की तरह देखने की आदत विकसित हो गई है।
लेकिन अब मानव समाज बहुत विकसित हो गया है और उसे आबादी बढ़ाने वाले आदिम
संवेगों की जरूरत नहीं है। अब तो समस्या आबादी पर नियंत्रण की है। सभ्यता
और विज्ञान के विकास ने मानव जाति के लिए कई बुनियादी पैमाने बदल डाले हैं,
इन्हीं में स्त्री-पुरुष के बीच गैरबराबरी का मसला भी है। वैज्ञानिक मान
रहे हैं कि चूंकि वे गैरबराबरी और स्त्रियों को ‘वस्तु’ मानने के जैविक
आधार को कुछ हद तक जान पाए हैं, तो इससे इनके बीच की गैरबराबरी मिटाने में
भी सहायता मिलेगी।
संपादकीय दैनिक हिन्दुस्तान दिनांक 30 जुलाई 2012
Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/subeditorial/article1-story-57-116-246626.html