नारी मन के रहस्यों को समझते हुए उसकी समस्याओं का समाधान खोजने की एक बोधपूर्ण विचार यात्रा
Wednesday, August 29, 2012
Thursday, August 2, 2012
घर के साथ बाहर का काम कर रहा है औरत को बीमार Women empowerment
सेवा क्षेत्र में घटती महिलाओं की भागीदारी
ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री
महिलाओं की सेवा क्षेत्र में लगातार घट रही भागीदारी को देखते हुए योजना
आयोग ने सरकार को यह सुझाव दिया है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान देश
में सृजित होने वाली ढाई करोड़ नई नौकरियों में से आधी महिलाओं को मिलें।
यह प्रस्ताव महिला सशक्तीकरण को नई दिशा दे सकता है। यूं तो ‘महिला
सशक्तीकरण’ एक व्यापक अवधारणा है, पर उसका केंद्रबिंदु ‘निर्णय लेने की
स्वतंत्रता’ है और यह तभी संभव है, जब महिलाएं आत्मनिर्भर हों। महिलाएं देश
का महत्वपूर्ण मानव संसाधन हैं, इसलिए सामाजिक-आर्थिक विकास का अत्यंत
महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व भी हैं। चिंता का विषय यह है कि पिछले तीन दशकों
में महिलाओं के वंचित रह जाने की समस्या को खत्म करने में सफलता नहीं मिली
है।
आम
राय यह है कि आर्थिक मोर्चे पर भारतीय महिलाएं बड़ी तेजी के साथ आगे बढ़
रही हैं, परंतु आंकड़े इससे उलट कुछ और बयान कर रहे हैं। 2009-10 के एक
सर्वे के मुताबिक, ‘कार्य’ में महिलाओं की भागीदारी की दर 2004-05 में 28.7
प्रतिशत थी, जो 2009-10 में घटकर 22.8 प्रतिशत रह गई। जब देश के चुनिंदा
आला पदों पर आसीन महिलाएं फोर्ब्स पत्रिका में स्थान पा रही हैं, तो आर्थिक
मोर्चे पर महिलाओं की भागीदारी घटना हैरत की बात है। दरअसल, भारतीय
महिलाओं के लिए यह एक ऐसा संक्रमण काल है, जहां एक ओर उनके लिए आर्थिक
स्वतंत्रता ने द्वार खोल रखे हैं, तो दूसरी ओर उनकी परंपरागत पारिवारिक
जिम्मेदारियां हैं, जिन्हें निभाने की सीख उन्हें बचपन से ही दी जाती है।
यह जरूर है कि शहरी संस्कृति से ताल्लुक रखने वाले ऐसे मध्यवर्गीय परिवारों
की तादाद में बढ़ोतरी हुई है, जिन्होंने अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने
के लिए औरतों को बाहर जाकर काम करने की ‘इजाजत’ दी है। इसके बावजूद उन्हें
परिवार के कार्यो से मुक्ति मिलती हो, ऐसा नहीं है। दूसरी ओर कार्यस्थल पर
होने वाला लैंगिक भेदभाव, उनके प्रबंधन, नेतृत्व व कार्यक्षमताओं पर
विश्वास न करने की मानसिकता, उन्हें उनके पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षाकृत
अधिक चुनौती देती है।
यही दोहरा दबाव भारतीय महिलाओं को ‘आर्थिक स्वतंत्रता’ की सोच को ही
तिलांजलि देने के लिए प्रेरित करता है। ब्रिटेन में हुए एक सर्वे के
मुताबिक, सुबह छह बजे बिस्तर छोड़ने के बाद से रात 11 बजे से पहले तक
उन्हें एक पल की फुरसत नहीं होती। अनवरत काम से उनका शरीर बीमारियों का गढ़
बनने लगता है। यह स्थिति भारतीय संदर्भ में और गंभीर है, जहां पुरुष घरेलू
कामकाज में सहयोग देना आज भी उचित नहीं समझते। क्या स्त्री की इससे मुक्ति
संभव है? है, बशर्ते परिवार के पुरुष सदस्य उसे अपनी ही भांति इंसान मानना
शुरू कर दें और घर की जिम्मेदारियों को निभाने में उसके वैसे ही सहयोगी
बनें, जैसे परिवार की आर्थिक सुदृढ़ता के लिए स्त्री ने बाहर जाकर काम करना
स्वीकारा है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
साभार दैनिक हिन्दुस्तान दिनांक 3 अगस्त 2012 पृष्ठ 12
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-247802.html
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