बात बरसों पुरानी है। मैंने वृंदावन में सड़क पर एक विधवा का शव देखा। स्थानीय लोगों ने उस महिला का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि विधवा का शव छूने से अपशकुन होता है। ऐसे अंधविश्वासों की वजह से ही विधवाओं का शोषण होता है।
वह सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लेखिका हैं और महिला आंदोलन की नेता भी। मोहिनी गिरी 40 साल से भारत व दक्षिण एशिया में युद्ध प्रभावित परिवारों के लिए संघर्ष करती रही हैं। पेश है अमेरिका की केन्टकी यूनीवर्सिटी के एक कार्यक्रम में विधवाओं के हालात पर हुए मोहिनी गिरी के भाषण के अंश।
भेदभाव और शोषण
मैं आज यहां आपसे विधवाओं के मुद्दे पर बात करना चाहती हूं। आप पूछेंगे कि भला इस मंच पर विधवाओं का मुद्दा क्यों?
हम सब एक वैश्विक समुदाय का हिस्सा हैं। हमें एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए ताकि समाधान की दिशा में कदम उठाए जा सकें। दुनिया भर में बड़ी संख्या में महिलाएं युद्घ व हिंसा की वजह से अपने पतियों को खो देती हैं। काश! ये लड़ाईयां खत्म हो जाएं। ऐसा हुआ तो यकीनन ये यह दुनिया एक बेहतर जगह बन पाएगी। विधवाओं के साथ हमेशा से भेदभावपूर्ण व्यवहार होता रहा है। वर्ष 2010 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 4.5 करोड़ विधवाएं हैं। इनमें से 4 करोड़ महिलाओं को विधवा पेंशन नहीं मिल पाती। परंपरा के नाम पर इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, परिवार के अंदर उन्हें बोझ समझा जाता है।
पितृसत्तात्मक व्यव्स्था
भारत में विधवाओं के खराब हाल के लिए काफी हद तक पितृसत्तामक व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था के तहत परिवार के अंदर सारे अधिकार पति के पास होते हैं। ऐसे में पति की मौत होते ही महिला से सारे अधिकार छिन जाते हैं और उसका शोषण शुरू हो जाता है। कहने के लिए तो देश में महिलाओं के लिए कई कानून हैं। लेकिन असल में इन कानूनों का पालन नहीं हो पाता है। अक्सर पति की मौत के बाद घर की जमीन भाइयों और बेटों में बंट जाती है और विधवा महिला पूरी तरह असहाय हो जाती है। मुझे भी ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। मेरे पति ने अपनी मौत से पहले अपनी सारी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी, लेकिन मुझे यह अधिकार हासिल करने के लिए कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा। मुझसे कहा गया कि मैं अपने बेटों से इस बारे में एनओसी लेकर आऊं।
दूसरी शादी नहीं
हमारे यहां विधवाओं की दूसरी शादी का चलन ही नहीं है। पति की मौत के बाद पत्नी को बाकी की जिंदगी अकेले ही बितानी होती है। भारतीय परंपरा में माना जाता है कि शादी सात जन्मों का रिश्ता है। ऐसे में विधवा स्त्री दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। पति की मौत के बाद उसे पूरे जीवन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। परंपरा के नाम पर इन्हें सफेद धोती पहननी पड़ती है। विधवाओं के लिए सज-संवरकर रहना गलत माना जाता है।
वृंदावन का हाल
अब मैं आपसे वृंदावन की बात करूंगी। वृंदावन में सैकड़ों विधवाएं हैं जिन्हें उनके बेटे या परिवार वाले कृष्ण दर्शन के नाम पर छोड़ गए और फिर लौटकर कभी उनका हाल पूछने नहीं आए। आज से 25-30 साल पहले की बात है। तब मैं महिला आयोग की अध्यक्ष थी। मैं वृंदावन की विधवाओं का हाल जानने के लिए पहुंची। मैंने सड़क पर एक विधवा का शव देखा। उस शव को चील-कौवे नोंच रहे थे। ये देखकर मेरा दिल दहल गया। मैंने लोगों से कहा कि वे उसका अंतिम संस्कार करें। उन्होंने कहा कि वे विधवा का शव नहीं छू सकते, यह अपशकुन होगा। ऐसी ही तमाम भ्रांतिया और परंपराएं हैं, जिनके नाम पर विधवाओं का शोषण होता रहा है।
दर्दनाक कुप्रथा
देश में कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहां विधवाओं को अपशकुनी या चुड़ैल मान लिया जाता है। उत्तर व मध्य भारत और नेपाल के कुछ ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सुनने में आई हैं। ऐसे मामलों में स्थानीय पंचायतें भी कुछ नहीं कर पाती है। भारत में आज भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां बाल विवाह और बेमेल विवाह की कुप्रथा बदस्तूर जारी है। मसलन राजस्थान के कुछ इलाकों में बहुत कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती है। कई बार तो कम उम्र की लड़कियों का विवाह उनसे कई गुना ज्यादा उम्र के पुरुषों से कर दिया जाता है। ऐसे में जब ये लड़कियां जवान होती हैं, तब तक उनके पति बूढ़े हो जाते हैं। पति की मौत के बाद इन्हें बाकी जिंदगी विधवा बनकर गुजारनी पड़ती है।
अशिक्षा व गरीबी
विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा एक बड़ी वजह है। जहां अशिक्षा है, वहां गरीबी होना तय है। गरीबी की वजह से विधवाओं को बुनियादी जरूरतें जैसे भोजन, कपड़े और दवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। अनपढ़ होने की वजह से इन महिलाओं को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने को मजबूर हो जाती हैं। उनके लिए राज्य और केंद्र सरकारों की कई योजनाएं हैं, पर इनका लाभ उन तक नहीं पहुंचता।
बुजुर्गों के अधिकार
देश में बुजुर्गों की सामाजिक सुरक्षा का कोई खास प्रबंध नहीं है। हमारा समाज पहले से ही महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाता है, इसलिए बुढ़ापे में एक विधवा के लिए जीवन और कठिन हो जाता है। विधवाओं के लिए एक छोटी बचत योजना होनी चाहिए, ताकि वे अपने बुढ़ापे के लिए कुछ पैसा जमा कर सकें। हमें विधवाओं से संबंधित व्यवस्थित आंकड़ें एकत्र करने होंगे ताकि उनके लिए व्यापक योजनाएं बनाई जा सकें। विधवाओं के इलाज और स्वास्थ्य की देखरेख की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होनी चाहिए। विधवाओं को भी सम्मान से जीने और मुस्कराने का हक है।
प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी
Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/aapkitaarif/article1-story-57-65-346865.html
वह सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लेखिका हैं और महिला आंदोलन की नेता भी। मोहिनी गिरी 40 साल से भारत व दक्षिण एशिया में युद्ध प्रभावित परिवारों के लिए संघर्ष करती रही हैं। पेश है अमेरिका की केन्टकी यूनीवर्सिटी के एक कार्यक्रम में विधवाओं के हालात पर हुए मोहिनी गिरी के भाषण के अंश।
मैं आज यहां आपसे विधवाओं के मुद्दे पर बात करना चाहती हूं। आप पूछेंगे कि भला इस मंच पर विधवाओं का मुद्दा क्यों?
हम सब एक वैश्विक समुदाय का हिस्सा हैं। हमें एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए ताकि समाधान की दिशा में कदम उठाए जा सकें। दुनिया भर में बड़ी संख्या में महिलाएं युद्घ व हिंसा की वजह से अपने पतियों को खो देती हैं। काश! ये लड़ाईयां खत्म हो जाएं। ऐसा हुआ तो यकीनन ये यह दुनिया एक बेहतर जगह बन पाएगी। विधवाओं के साथ हमेशा से भेदभावपूर्ण व्यवहार होता रहा है। वर्ष 2010 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 4.5 करोड़ विधवाएं हैं। इनमें से 4 करोड़ महिलाओं को विधवा पेंशन नहीं मिल पाती। परंपरा के नाम पर इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, परिवार के अंदर उन्हें बोझ समझा जाता है।
भारत में विधवाओं के खराब हाल के लिए काफी हद तक पितृसत्तामक व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था के तहत परिवार के अंदर सारे अधिकार पति के पास होते हैं। ऐसे में पति की मौत होते ही महिला से सारे अधिकार छिन जाते हैं और उसका शोषण शुरू हो जाता है। कहने के लिए तो देश में महिलाओं के लिए कई कानून हैं। लेकिन असल में इन कानूनों का पालन नहीं हो पाता है। अक्सर पति की मौत के बाद घर की जमीन भाइयों और बेटों में बंट जाती है और विधवा महिला पूरी तरह असहाय हो जाती है। मुझे भी ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। मेरे पति ने अपनी मौत से पहले अपनी सारी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी, लेकिन मुझे यह अधिकार हासिल करने के लिए कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा। मुझसे कहा गया कि मैं अपने बेटों से इस बारे में एनओसी लेकर आऊं।
हमारे यहां विधवाओं की दूसरी शादी का चलन ही नहीं है। पति की मौत के बाद पत्नी को बाकी की जिंदगी अकेले ही बितानी होती है। भारतीय परंपरा में माना जाता है कि शादी सात जन्मों का रिश्ता है। ऐसे में विधवा स्त्री दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। पति की मौत के बाद उसे पूरे जीवन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। परंपरा के नाम पर इन्हें सफेद धोती पहननी पड़ती है। विधवाओं के लिए सज-संवरकर रहना गलत माना जाता है।
अब मैं आपसे वृंदावन की बात करूंगी। वृंदावन में सैकड़ों विधवाएं हैं जिन्हें उनके बेटे या परिवार वाले कृष्ण दर्शन के नाम पर छोड़ गए और फिर लौटकर कभी उनका हाल पूछने नहीं आए। आज से 25-30 साल पहले की बात है। तब मैं महिला आयोग की अध्यक्ष थी। मैं वृंदावन की विधवाओं का हाल जानने के लिए पहुंची। मैंने सड़क पर एक विधवा का शव देखा। उस शव को चील-कौवे नोंच रहे थे। ये देखकर मेरा दिल दहल गया। मैंने लोगों से कहा कि वे उसका अंतिम संस्कार करें। उन्होंने कहा कि वे विधवा का शव नहीं छू सकते, यह अपशकुन होगा। ऐसी ही तमाम भ्रांतिया और परंपराएं हैं, जिनके नाम पर विधवाओं का शोषण होता रहा है।
देश में कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहां विधवाओं को अपशकुनी या चुड़ैल मान लिया जाता है। उत्तर व मध्य भारत और नेपाल के कुछ ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सुनने में आई हैं। ऐसे मामलों में स्थानीय पंचायतें भी कुछ नहीं कर पाती है। भारत में आज भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां बाल विवाह और बेमेल विवाह की कुप्रथा बदस्तूर जारी है। मसलन राजस्थान के कुछ इलाकों में बहुत कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती है। कई बार तो कम उम्र की लड़कियों का विवाह उनसे कई गुना ज्यादा उम्र के पुरुषों से कर दिया जाता है। ऐसे में जब ये लड़कियां जवान होती हैं, तब तक उनके पति बूढ़े हो जाते हैं। पति की मौत के बाद इन्हें बाकी जिंदगी विधवा बनकर गुजारनी पड़ती है।
विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा एक बड़ी वजह है। जहां अशिक्षा है, वहां गरीबी होना तय है। गरीबी की वजह से विधवाओं को बुनियादी जरूरतें जैसे भोजन, कपड़े और दवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। अनपढ़ होने की वजह से इन महिलाओं को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने को मजबूर हो जाती हैं। उनके लिए राज्य और केंद्र सरकारों की कई योजनाएं हैं, पर इनका लाभ उन तक नहीं पहुंचता।
देश में बुजुर्गों की सामाजिक सुरक्षा का कोई खास प्रबंध नहीं है। हमारा समाज पहले से ही महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाता है, इसलिए बुढ़ापे में एक विधवा के लिए जीवन और कठिन हो जाता है। विधवाओं के लिए एक छोटी बचत योजना होनी चाहिए, ताकि वे अपने बुढ़ापे के लिए कुछ पैसा जमा कर सकें। हमें विधवाओं से संबंधित व्यवस्थित आंकड़ें एकत्र करने होंगे ताकि उनके लिए व्यापक योजनाएं बनाई जा सकें। विधवाओं के इलाज और स्वास्थ्य की देखरेख की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होनी चाहिए। विधवाओं को भी सम्मान से जीने और मुस्कराने का हक है।
प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी
Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/aapkitaarif/article1-story-57-65-346865.html
हिन्दुस्तान १ जुलाई २०१३
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार१६ /७ /१३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है
ReplyDeleteमीना त्रिवेदी जी ,आपके अधिकतर बातों से मै सहमत हूँ परन्तु मैं एक बात कहना चाहूँगा कि विधवा विवाह ,उसका अंतिम संस्कार जैसे कार्य में परिवर्तन लाने लिए तथाकत्थित धार्मिक पुस्तकों में परिवर्तन करना होगा , पंडों पुजारियों के सोच बदलना होगा .धर्मान्धता को दूर कर मानविक दृष्टिकोण को अपनाना होगा .कुर्सी में बैठे लोग यह प्रयास नहीं करते हैं .कुर्सी से उतरने पर उनके प्रयन्त का कोई लाभ नहीं होता
ReplyDeletelatest post सुख -दुःख
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