तारा देवी को कमरे के दरवाज़े पर छोड़कर उनकी सहेलियां हंसी-मज़ाक़ करती हुई वापस लौट गईं। तारा देवी ने अपने बड़े से बेडरूम में प्रवेश किया और ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठकर ख़ुद को निहारने लगीं। उनका शरीर पचास को पार कर चुका था लेकिन उसकी आब आज भी बनी हुई थी। चांद जैसा गोल चेहरा, गेहुंआ रंग, दरम्याना क़द और भरा हुआ शरीर, हसीन कहलाने के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब कुछ उनके पास था। हाथ, नाक, नाक, गला, सिर और पैर हर जगह हीरे-मोती और सोने-चांदी के ज़ेवर उनकी ख़ूबसूरती को चार चांद लगा रहे थे। लाल-नीले कलर की महंगी बनारसी साड़ी भी उन पर ख़ूब फब रही थी। उनके वुजूद से उठती हुई ख़ुश्बू की लहरें फ़िज़ा को महका रही थीं। उन्होंने अपने बेड पर नज़र डाली, जो गेंदा, गुलाब और चमेली के अलावा तरह-तरह के फूलों से लदा हुआ था। क़ीमती फ़र्नीचर से आरास्ता बेडरूम का रंग आज उन्हें बिल्कुल अलग ही लग रहा था। सब कुछ उनका था लेकिन आज उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे कि इन चीज़ों पर वह नाजायज़ क़ब्ज़ा किए बैठी हों।
किस कर्म के बदले उन्हें यह सब मिला ?जब भी वह इस सवाल को हल करने की कोशिश करतीं तो उन्हें अपने अंदर से कभी ऐसा कोई जवाब न मिलता जिससे वह संतुष्ट हो पातीं। ज़ेवरों को उतारते हुए उनकी नज़र खिड़की से झांकते हुए चांद पर पड़ी तो उन्हें ठीक वह दिन याद हो आया, जब धनवीर सिंह उनके कोठे पर पहली बार आए थे।
उस दिन भी चांद अपनी पूरी जवानी पे था और वह उसे निहारते हुए सोच रही थीं कि इंसान की कठिनाइयां भी चांद की तरह घटती-बढ़ती रहती हैं। तभी उसे अपने पीछे आहट महसूस हुई। उसने पलटकर देखा तो एक लंबा चौड़ा और ख़ूबसूरत आदमी उसके दरवाज़े पर खड़ा था। उसके साथ कोठे की बूढ़ी मालकिन पारो भी खड़ी थी।
‘तारा, सेठ जी का ख़ास ख़याल रखना। यह ज़रा अलग टाइप के आदमी हैं।‘-पारो ने हिदायत की और फिर पलटकर चली गई।
‘इसका मतलब सेठ कोई मोटी आसामी है। हरेक के साथ तो पारो यूं आती नहीं। हमें क्या, जैसा ख़र्चा करेगा वैसी सेवा पाएगा। यह रंडी का कोठा है। यहां ख़ैरात थोड़े ही बंट रही है।‘-तारा ने दिल ही दिल में सोचा और उसने ख़ुद को लम्हे भर में तैयार भी कर लिया।
‘आइये, अंदर आइये, आइये न प्लीज़‘-उसने बड़ी तहज़ीब से मेहमान का स्वागत किया।
आदमी क्या चाहता है ?
मान-सम्मान और प्यार के दो बोल। रंडी इस बात को ख़ूब जानती है और अपने ग्राहकों को वह यही सब देती है और बदले में जो वह चाहती है उसके ग्राहक उसे देते हैं। यह एक व्यापार है तन का व्यापार मन से है। यहां कोई किसी चीज़ का भूखा है और कोई किसी चीज़ का ज़रूरतमंद। दौलत की ज़्यादती और प्यार की कमी कोठों की आबादी का असली सबब है।
‘हुम्म‘-गर्दन हिलाकर धनवीर जी ने अंदर आने के लिए क़दम आगे बढ़ाए तो तारा को पता चला कि वह चलते हुए लंगड़ाते हैं।
‘हुं, लंगड़े में एक ऐब फ़ालतू होता है।‘-तारा ने मन ही मन सोचा और फिर पूछा-‘आप क्या लेंगे साहब , पान, पैग या दूध ?‘
(...जारी, डा. अनवर जमाल की क़लम से एक ऐसा अफ़साना जो दिल को छूता है, दिमाग़ को झिंझोड़ता है और फिर सीधे रूह में उतर जाता है, नेट पर पहली बार)
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