Thursday, May 24, 2012

औरत की हक़ीक़त Part 4 (प्रेम और वासना की रहस्यमय पर्तों का एक मनोवैज्ञानिक विवेचन) - Dr. Anwer Jamal


(...और अब आगे )
‘यहां कब से हो ?‘-धनवीर जी ने तारा से पूछा।
‘2 महीने से।‘
‘इससे पहले कहां थीं ?‘
‘थी कहीं, किसी को इससे क्या ?, अपना काम करो सेठ, बेकार में ग़ुस्सा आ जाएगा।‘-तारा ने कुछ नाराज़गी से कहा।
‘इस धंधे में कैसे आ गईं ?‘-धनवीर जी को जैसे उसकी नाराज़गी की कोई परवाह ही न हो।
‘क्या करेंगे पूछकर ?-तारा ने उकताकर पूछा।
‘रात हमारी है, इसे गुज़ारना है तो कुछ बात तो करनी ही पड़ेगी। वैसे भी तुम पढ़ी लिखी लगती हो‘-धनवीर जी ने कहा।
तारा को लगा कि धनवीर सचमुच ही अलग तरह का आदमी है। उसने पूछा-‘क्या आप पुलिस के आदमी हैं ?‘
‘नहीं। क्या तुम्हें मैं पुलिस का आदमी लगता हूं ?‘
‘नहीं, पुलिस के आदमी आपकी तरह बैठे तो नहीं रहते और फिर कुछ देकर भी नहीं जाते लेकिन सवाल आप पुलिस की तरह ही पूछ रहे हैं। इसलिए पूछा।‘-तारा ने खिड़की पर नज़र डाली तो चांद कुछ और बुलंद हो गया था।
‘इस धंधे में किसने धकेला ?‘-धनवीर जी ने पूछा।
तारा चुप रही।
‘नहीं बताओगी, तब भी कोई बात नहीं है। हमें पता है।‘-धनवीर जी ने कहा।
‘आपको कैसे पता है ?‘-तारा की उत्सुकता जाग उठी।
‘कुछ कहानियां सैट हैं इस धंधे में आई लड़कियों की। किसी को उसके मां बाप छोड़कर मर गए तो उसके रिश्तेदार बेच देते हैं और किसी को उसका शराबी बाप बेच देता है लेकिन तुम्हें इनमें से किसी ने नहीं बेचा।‘-धनवीर जी ने टेक लगाते हुए कहा।
‘हां, यह तो आपने सही कहा। अब आप यह भी बता दें कि मुझे किसने यहां पहुंचाया ?‘-तारा ने ताज्जुब से पूछा।
‘तुम्हारा पति ही तुम्हें यहां बेच गया है। उसने तुमसे प्यार का ढोंग किया, बड़े बड़े सपने दिखाए, अपनी शान दिखाई, तुम्हें तोहफ़े दिए और फिर तुम्हें भगा लाया। किसी मंदिर में तुम्हारी मांग भी भर दी। तुम उसके साथ यहां चली आईं और वह तुम्हारी क़ीमत लेकर चुपचाप यहां से चला गया तुम्हें बिना बताए।‘-धनवीर जी ने उसे उसकी कहानी बताई तो वह हैरत में पड़ गई।
‘हां, यही सब तो हुआ मेरे साथ। या तो आप कोई ज्योतिषी हैं या फिर आपको यह सब पारो ने बताया है।‘-तारा ने अंदाज़े से कहा।
‘हा हा हा‘-धनवीर जी अपने आप को ज्योतिषी के रूप में कल्पना करके हंसने लगे। तारा उनके मुंह को देख रही थी। उसे भी अब धनवीर जी में दिलचस्पी पैदा होने लगी थी।
‘नहीं ऐसा नहीं है। न तो हम ज्योतिषी हैं और न ही पारो ने हमें कुछ बताया है। हमने कहा न कि इस धंधे में फंसी हुई लड़कियों की चंद कहानियां तय हैं। तुम पढ़ी लिखी हो, शक्ल सूरत से अच्छी हो और बोल चाल में भी सलीक़ा है। इसी से हमने समझ लिया कि तुम किसी क़स्बे के अच्छे घर की लड़की हो और किसी के धोखे में आकर यहां तक चली आईं। तुम्हारी उम्र ही ऐसी है कि जब लड़की एक ख़ूबसूरत राजकुमार के सपने देखने लगती है। धोखेबाज़ इसी का फ़ायदा उठाकर लड़कियों को बर्बाद कर देते हैं। बस, इस तरह हमने तुम्हारी कहानी जान ली।‘-धनवीर जी उसे तफ़्सील से समझाया।
‘हुं, बात तो आपकी सही है। मैंने अपने मां-बाप से ज़्यादा अपने प्यार पर भरोसा किया और ख़ुद को बर्बाद कर लिया।‘-तारा को अपनी पुरानी ज़िंदगी याद आई तो उसकी आंखों में नमी सी आ गई। अचानक उसे उबकाई सी आई और वह उखड़कर बोली-‘देखा सेठ, पिछली ज़िंदगी की याद दिलाकर आपने कर दिया न सारा मूड ख़राब।‘
‘मूड नहीं, तबियत ख़राब है तुम्हारी। तुम मां बनने वाली हो।‘-धनवीर जी ने उसे एक और हक़ीक़त बताई।
‘हां, कुछ दिन ऊपर हो गए हैं। क्या करें सेठ, आने वाला अपना मज़ा देखता है और सज़ा हम भोगते हैं। ख़र्चा अलग से पड़ता है। क्या फ़ायदा इस कमाई से, सब रख-रखाव में ही ख़र्च हो जाती है।‘-तारा ने अपना दुख बयान किया।
‘...तो फिर छोड़ क्यों नहीं देतीं इस धंधे को ?‘-धनवीर जी ने पूछा।
‘जिस दिन पारो के पचास हज़ार रूपये उतार दूंगी, उसी दिन यह धंधा छोड़ दूंगी लेकिन इसमें बरसों खप जाएंगे।‘-तारा ने अपना इरादा ज़ाहिर किया।
‘किसी से उधार लेकर भी तो पारो को रक़म अदा कर सकती हो।‘-धनवीर जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘किसी से ले सकती तो ज़रूर ले लेती और इस नर्क से मुक्त हो जाती साहब लेकिन मुझे कौन देगा इतनी बड़ी रक़म ?‘
‘हम देंगे।‘-धनवीर जी ने बदस्तूर मुस्कुराते हुए कहा।
‘अयं, आप हमें इतनी बड़ी रक़म क्यों देंगे भला ?‘-तारा ने शोख़ी से पूछा।
‘बस ऐसे ही।‘
‘ऐसे ही तो कोई नहीं देता साहब। ज़रूर आप हमें अपनी कोठी पर रखना चाहते होंगे ?, है न ?‘
‘चलो ठीक है। रंडी से रखैल बन जाएंगे। अच्छा रहेगा।‘
‘कोठी पर तो हम तुम्हें रखना चाहते लेकिन रखैल बनाकर नहीं बल्कि अपनी पत्नी बनाकर।‘-धनवीर जी ने पूरी गंभीरता से कहा तो तारा को अपनी तक़दीर पर यक़ीन ही नहीं आया।
‘मुझसे शादी करोगी ?‘-धनवीर जी ने तारा का हाथ थामकर पूछा तो तारा घबरा सी गई।
‘न कहने का तो सवाल ही नहीं है लेकिन मुझसे शादी करके आपको क्या मिलेगा साहब ?‘-उसने हैरत से पूछा।
‘मुझे मंज़िल मिल जाएगी, मेरी तलाश ख़त्म हो जाएगी ?‘-धनवीर जी ने गंभीरता से कहा।
‘तलाश ?, आपको किस चीज़ की तलाश थी ?, क्या मेरी ?‘-तारा की हैरत और ज़्यादा बढ़ गई।
‘कोई तलाश करता है और कोई इंतेज़ार और कोई दोनों। हमें तलाश थी और तुम्हें इंतेज़ार। तुम हमारी ज़रूरत हो और हम तुम्हारी। इतना समझ लो, बस काफ़ी है। कोठी, कार, बिज़नैस और दौलत हरेक चीज़ है हमारे पास। तुम्हें ज़िंदगी भर कोई तकलीफ़ न होगी।‘-धनवीर जी ने बात का रूख़ मोड़ने के लिए कहा।
‘जो इज़्ज़त आप दे रहे हैं, वह हरेक चीज़ से बढ़कर है।‘-तारा की आंखों में आंसू छलछला आए और जल्दी ही उसने अपने कपड़े वग़ैरह एक बैग में समेट लिए।
धनवीर के बुलाने पर वह पारो को बुला लाई। उसे उम्मीद नहीं थी कि पारो उसे आसानी से जाने देगी लेकिन जब धनवीर जी ने उसे नोटों को एक मोटा सा बंडल पकड़ाया तो उसने लेने से ही इंकार कर दिया। पारो बोली-‘साहब, आप शर्मिन्दा न करें। पहले ही आप इतना कुछ दे चुके हैं और आपका अपना कोई लालच भी तो नहीं है।‘
’तुमने ख़र्च किया है तो तुम्हारी रक़म डूबनी नहीं चाहिए। हमारा क्या है, हम तो आते रहेंगे और ले जाते रहेंगे लेकिन एक फ़र्क़ है पारो।‘
‘वह क्या सेठ जी ?‘-पारो ने पूछा।
‘तारा को हम अपनी दुल्हन बनाएंगे।‘-धनवीर जी ने उसे फ़र्क़ बताया।
‘हां, इसलिए इसकी कोई भी निशानी तुम्हारे पास या किसी और के पास भी बाक़ी नहीं रहनी चाहिए। समझ गईं न तुम।‘-धनवीर जी ने ग़ुर्राते हुए कहा।
‘मैं समझ गई साहब, मैं बिल्कुल समझ गई। आप चिंता न करें। तारा कभी यहां आई ही नहीं थी।‘-पारो ने घबराते हुए कहा। उसके लहजे से तारा समझ गई कि धनवीर जी कोई मामूली चीज़ नहीं हैं।
‘मैं तुम्हारी मुजरिम हूं बेटा, मुझे माफ़ दो, तुम सचमुच देवता हो।‘-यह कहते हुए पारो धनवीर जी के पैरों में गिर पड़ी। ‘सेठ जी‘ के बजाय पारो ने धनवीर जी को अचानक ही बेटा कहकर माफ़ी मांगी तो तारा को बहुत अजीब सा लगा। पारो तो एक संगदिल और बेहद लालची औरत है। इसके अंदर पश्चात्ताप कैसे जाग उठा ?
‘हम तो देवता नहीं हैं लेकिन तुम बहुतों की मुजरिम ज़रूर हो। हम तो आज तुम्हें माफ़ कर रहे हैं लेकिन ऊपर वाले को तुम क्या मुंह दिखाओगी ?‘-धनवीर जी तारा को लेकर पारो के कोठे से निकल आए और पारो वहीं ज़मीन पर बैठ कर तारा को जाते हुए देखती रही। आज उसे तारा की क़िस्मत से जलन हो रही थी। उसकी ज़िंदगी में भी कई हाथ उसकी तरफ़ बढ़े कि उसे सहारा दें लेकिन उसी ने किसी का कभी ऐतबार न किया।

सेठ धनवीर जी उसे लेकर कुछ दिन दिल्ली के होटल में ठहरे। इन दिनों में उन्होंने तारा के लिए कुछ कपड़े और ज़ेवर ख़रीदे, उसका पासपोर्ट बनवाया और आदमी भेजकर उसके मां-बाप को भी वहीं बुलवाया। उन्होंने उसके मां बाप को कोई कहानी बताई कि तारा को अंग बेचने वाले डाक्टर के बदमाशों ने अग़वा कर लिया था। किसी तरह वह वहां से भाग निकली लेकिन अपने यह सोचकर अपने घर नहीं गई कि उसके घरवाले उसकी बात का विश्वास नहीं करेंगे। एक दिन वह उनसे नौकरी मांगने आई तो उसने अपनी दुख भरी कहानी सुनाई। हमने आपको इसलिए यहां बुलाया है कि आप इसे साथ ले जाना चाहें तो अपने साथ ले जाएं और अगर आप अपना आशीर्वाद दें तो हम इसके साथ विवाह करना चाहते हैं।
धनवीर जी तो उनकी सारी समस्या ही हल कर रहे थे। उन्हें भला क्या इन्कार होता ?
वे ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए।
धनवीर जी तारा और उसके मां-बाप को लेकर अपनी कोठी में आ गए। यह आलीशान कोठी नोएडा में बनी थी। धनवीर जी ने तारा के साथ शादी की और बड़े शानदार तरीक़े से भी की और बड़े सलीक़े से भी। उन्होंने अपने दोस्तों को भी बुलाया और तारा के रिश्तेदारों को भी। किसी रिश्तेदार की हिम्मत न पड़ी कि वह तारा से कुछ भी पूछ सके। दौलत हरेक सवाल को दबा देती है। जिसके पास दौलत है, वही इज़्ज़त वाला है, समाज की सोच यही है। आज तारा की इज़्ज़त के सामने उसके हरेक रिश्तेदार की इज़्ज़त छोटी पड़ गई थी। धनवीर जी का नर्सरी का बहुत बड़ा काम था। उनका बिज़नैस विदेशों तक फैला हुआ था। उनकी नर्सरी में बहुत सी औरतें काम करती थीं। बाद में तारा को पता चला कि धनवीर जी ने उसकी तरह उनका भी उद्धार किया था। किसी के पति को ढूंढकर निकाला और किसी की शादी कराई। किसी को अपने यहां रोज़गार दिया और किसी को अपनी सिफ़ारिश से कहीं और काम दिलाया। समाज और राजनीति में उनका बड़ा दख़ल था। उनकी शादी में भी बड़ी बड़ी हस्तियां शामिल हुईं।



शादी में तारा के रिश्तेदार तो शामिल हुए लेकिन अब तक उसने धनवीर जी के किसी रिश्तेदार को न देखा था। बड़े लोगों की बात भी बड़ी होती है। होगी कोई बात, उसने सोचा या फिर हो सकता है कि धनवीर जी के रिश्तेदार उसके साथ उनकी शादी से ख़ुश न हों या हो सकता है कि धनवीर जी का कोई रिश्तेदार ही न हो।
‘हर चीज़ वक्त के साथ ख़ुद ही सामने आ जाएगी।‘-सजी हुई सुहाग सेज पर बैठी हुई तारा ने सोचा और गर्दन उठा कर धनवीर जी की मां के बड़े से फ़ोटो को देखा। फ़ोटो पर लगी हुई माला बता रही थी कि अब वह इस दुनिया में नहीं हैं। यह फ़ोटो उनकी जवानी की फ़ोटो थी। उसने देखा कि वह मुस्कुरा रही थीं। मुस्कुराते हुए उनके गालों में गड्ढे पड़ रहे थे।
तभी धनवीर जी कमरे में दाखि़ल हुए और सबसे पहले अपनी मां के फ़ोटो के सामने खड़े हो गए। काफ़ी देर तक वह खड़े रहे। ऐसा लग रहा था मानों वह अपनी मां से बातें कर रहे हों। उनसे आशीर्वाद मांग रहे हों। तारा भी मन ही मन उनसे आशीर्वाद मांगने लगी। जिस औरत ने धनवीर जी को जन्म दिया है, वह वाक़ई देवी होगी। धनवीर जी ने उसे कोठे वाली से कोठी वाली बना दिया था।
अचानक तारा के कानों में धनवीर के रोने की आवाज़ें पड़ीं तो वह अपने ख़यालों से बाहर निकली। आंसू पोंछकर धनवीर जी पलटे और उसके पास बेड पर आकर लेट गए और जल्दी ही वह सो गए।
‘शायद आज ज़्यादा ही थक गए हैं या फिर मां की याद ने उनका दिल बदल दिया।‘-तारा सोचती रही और सोचते सोचते वह भी सो गई। रोज़ रोज़ यही होने लगा तो तारा ने एक दिन पूछने की ठानी।
‘मेरा गर्भ साफ़ कब कराएंगे आप ?‘-तारा ने आखि़र सीधे ही पूछ लिया।
‘क्यों ?‘-धनवीर जी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा।
‘क्योंकि यह आपका नहीं है।‘
‘तुम हमारी हो तो अब यह भी हमारा है।‘-धनवीर जी ने सुकून से कहा।
‘...इसके कारण आप मुझसे दूर हैं, मेरी ख़ता मुझे दिन रात खाए जा रही है।‘-तारा ने रोते हुए।
‘तुमने कोई ख़ता नहीं की बल्कि तुम पर ज़ुल्म हुआ है। तुम ख़ुद तो एक मासूम पर ज़ुल्म न करो।‘-धनवीर जी की आंखों में सच्चाई झलक रही थी।
‘ऐसा कब तक चलेगा ?‘-तारा ने रोते हुए पूछा।
‘तुम्हारे अमेरिका से लौटने तक।‘
‘क्या ...?‘
‘हां, कल तुम हमारे साथ अमेरिका जा रही हो।‘-धनवीर जी ने उसके आंसू पोंछते हुए कहा।-‘इन दिनों में तुम्हारा ख़ुश रहना बहुत ज़रूरी है।‘

धनवीर जी अमेरिका आते जाते रहे लेकिन तारा बदस्तूर वहीं रही एक कोठी में, एक डॉक्टर की देखरेख में। जब वह अमेरिका से लौटी तो उसकी गोद में पारूल थी। पारूल के आने के बाद तारा को धनवीर जी से कोई शिकायत बाक़ी न रही थी। उन्होंने उसे भी भरपूर किया और उसकी बेटी पारूल को भी एक बाप की तरह ही प्यार दिया। फिर दो-दो साल के अंतर से अमन और कबीर पैदा हुए और पांच साल बाद सिमरन। परिवार पूरी तरह भरपूर हो गया।
‘आपने मुझसे शादी क्यों की ?‘-एक दिन तारा ने कुछ ख़ास लम्हों में यह सवाल किया तो धनवीर जी ज़ोर से हंसे।-‘मुझ लंगड़े को भला कौन अपनी लड़की देता ?‘
‘इन्कार भी कोई न करता।‘-तारा ने उनके बालों में उंगलियां फेरते हुए कहा।
‘जोड़े आसमान पर बनते हैं।‘-धनवीर जी ने एक पुरानी कहावत का सहारा लिया।
‘आपने मुझे कितना कुछ दिया है और मैं ...‘-तारा की आवाज़ रूंध गई।
‘तुमने हमें प्यारे से बच्चे दिए हैं और कुछ उससे भी बढ़कर दिया है जिसे तुम कभी समझ नहीं सकतीं।‘-धनवीर जी उसके मन में उतरते चले गए।
वक्त गुज़रता रहा। बच्चे बड़े हुए और पढ़ लिखकर वे अच्छे घरों में ब्याहे भी गए। दोनों लड़कों ने अपने अपने बिज़नैस जमा लिए। धनवीर जी ने उन्हें रहने के लिए भी अलग अलग कोठियां दे दीं। धनवीर जी अपने बेटों को सलाह देते थे लेकिन उन पर हुकूमत नहीं करते थे। उन्होंने जो करना चाहा, उन्हें करने दिया। उन्होंने जिन लड़कियों से शादी करनी चाही, उन्हें करने दी। उसने कुछ कहना चाहा तो वह बोले-‘तारा, जीवन उनका है तो फ़ैसला भी उनका ही होना चाहिए न ?
‘फिर हम मां-बाप किस लिए हैं ?‘-तारा ने झुंझलाकर पूछा था।
‘यह देखने के लिए कि उनका भला किस बात में है ?, अपनी पसंद उन पर थोपने के लिए नहीं और न ही उन्हें कुछ पसंद करने से रोकने के लिए।‘-धनवीर जी का जवाब उसे लाजवाब कर गया।
‘ये बातें आपने कहां पढ़ी हैं ?‘
‘पढ़ी नहीं हैं बल्कि सीखी हैं। ये बातें तो हमने हाजी अब्बा से सीखी हैं।‘
‘हाजी अब्बा से ?, क्या नासिर भाई और ग़ज़ाला बाजी के फ़ादर से ?‘
‘हां, वह गुज़र चुके हैं। उन्होंने ही हमें नर्सरी का काम सिखाया। जो कुछ भी हम आज हैं। हाजी अब्बा की वजह से ही तो हैं। उनका कहना था कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी नक़ल करेंगे। जो तुम आज हो, वे कल वही बनेंगे। तुम्हारे बच्चे अच्छे बनें इसलिए ख़ुद अच्छे बनो, अच्छाई की मिसाल बनो।‘
‘...तो फिर आपने किसी अच्छी लड़की से शादी क्यों न की ?‘-दिल में हमेशा से घूमते हुए सवाल को उसने आज एक बार फिर पूछ डाला। धनवीर जी का चेहरा पत्थर की तरह सख्त हो गया और वह ख़ामोश हो गए।
‘आय एम वैरी सॉरी।‘-तारा को अपनी ग़लती का अहसास हो गया था।
धनवीर जी वहां से उठकर चले गए और तारा ने तय किया कि अब वह उनसे ऐसा कोई सवाल न करेगी जो उन्हें दुख दे।

इंसान अपने इरादे का मालिक है लेकिन अपने ख़याल का नहीं। इरादा सोच समझ कर किया जाता है और उसे पूरा करना, न करना भी अपने हाथ में है लेकिन ख़याल किसी का पाबंद नहीं होता। तारा ने फिर कभी धनवीर जी से यह सवाल तो न किया लेकिन यह सवाल उनके ख़यालों में मौजूद हमेशा रहा। तारा ख़ुद ही यह सवाल हल करने की कोशिश करती रही और उम्र यूं ही कटती रही और इतनी कट गई कि षष्ठि पूर्ति का वक्त आ पहुंचा।
तारा देवी गहनों में लदी हुई दुल्हन की तरह अपने बेड पर बैठी थीं और यह सवाल उनके दिल में ज़ोर ज़ोर से सिर उठा रहा था कि ‘इतने धनी-मानी और देवता आदमी ने एक वेश्या से शादी क्यों की ?‘
जो सवाल हल न हो पाए वह आदमी के लिए राज़ बन जाता है। हमराज़ ही कोई राज़ छिपाए, इसे औरत की फ़ितरत कभी गवारा नहीं करती। धनवीर जी के अहसानों तले दबी हुई तारा ने उनसे कभी यह सवाल न किया लेकिन आज यही एक सवाल उनके दिलो-दिमाग़ को झिंझोड़ने लगा। उन्हें लग रहा था कि जैसे उनका वुजूद धनवीर जी जैसे देवता के दामन पर एक दाग़ है। जिस दाग़ से दुनिया दामन बचाती है, उसे उन्होंने ख़ुशी ख़शी क्यों क़ुबूल कर लिया ?



(...जारी, डा. अनवर जमाल की क़लम से एक ऐसा अफ़साना जो दिल को छूता है, दिमाग़ को झिंझोड़ता है और फिर सीधे रूह में उतर जाता है, नेट पर पहली बार)

4 comments:

  1. @ हमराज़ ही कोई राज़ छिपाए, इसे औरत की फ़ितरत कभी गवारा नहीं करती।
    मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण करती एक सुंदर श्रृंखला।

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  2. इस श्रंखला को पहली बार आज ही पढ़ा बाकी कहानी पढने की उत्सुकता बढ़ी और अंक भी जल्दी पढूंगी

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  3. निश्चय ही,आम जीवन में कोई लंगड़ा भी ऐसी औरत को बीवी नहीं बनाएगा,धनवान की तो बात ही क्या। ज़रूर कुछ बात है। तारा की तरह,बाक़ी पाठक भी जानना चाहेंगे।

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  4. आज पहली बार पढा और उत्सुकता बढ गयी है पिछले भी जल्द ही पढूँगी।

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